महाभारत वन पर्व अध्याय 82 श्लोक 43-63

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द्वयशीतितम (82) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

महाभारत: वन पर्व: द्वयशीतितम अध्याय: श्लोक 43-63 का हिन्दी अनुवाद

जम्बूमार्ग से लौटकर मनुष्य तन्दुलिका श्रम को जाय। इससे वह दुर्गति में नहीं पड़ता और अन्त ब्रह्मलोक को चला जाता है। राजन् ! जो अगस्त्यसरोवर जाकर देवताओं और पितरों के पूजन में तत्पर हो तीन रात उपवास करता है, वह अग्निष्टोमयज्ञ का फल पाता है। जो शाकाहार या फलहार करके वहां रहता है, वह परम उत्तम कुमार लोक (कार्तिकेय के लोक) में जाता है। वहां से लोकपूजित कण्व के आश्रम में जाय, जो भगवती लक्ष्मी के द्वारा सेवित है। भरतश्रेष्ठ ! वह धर्मारण्य कहलाता है, उसे परम पवित्र एवं अदितीर्थ माना गया है। उसमें प्रवेश करनेमात्र से मनुष्य सब पापों से छुटकारा पा जाता है। जो वहां नियमपूर्वक मिताहारी होकर देवता और पितरों की पूजा करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओं से सम्पन्न यज्ञका फल पाता है। तदनन्तर उस तीर्थ की परिक्रमा करके वहां से ययातिपतन नामक तीर्थ में जाय। वहां जाने से यात्री को अवश्य ही अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता है। वहां से महाकालतीर्थ को जाय। वहां नियमपूर्वक रहकर नियमित भोजन करे। वहां कोटितीर्थ में आचमन (एवं स्नान) करने से अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त होता है। वहां से धर्मज्ञ पुरूष उमावल्लभ भगवान् स्थाणु (शिव) के उस तीर्थ में जाय, तो तीनों लोकों में ‘भद्रवट’ के नामसे प्रसिद्ध है। वहां भगवान् शिव का निकट से दर्शन करके नरश्रेष्ठ यात्री एक हजार गोदान का फल पाता है और महादेवजी के प्रसाद से वह गणों का अधिपत्य प्राप्त कर लेता है जो अधिपत्य भारी समृद्धि और लक्ष्मी से सम्पन्न तथा शत्रुजनित बाधा से रहित होता है। वहां से त्रिभुवनविख्यात नर्मदा नदी के तटपर जाकर देवताओं और पितरों का तपर्ण करने से अग्निष्टोमयज्ञ का फल प्राप्त होता है। इन्द्रियों को काबू में रखकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए दक्षिण समुद्र की यात्रा करने से मनुष्य अग्निष्टोमयज्ञ का फल और विमान पर बैठने का सौभाग्य पाता है। इन्द्रियसंयम या शौच-संतोष आदि के पालनपूर्वक नियमित आहार का सेवन करते हुए चर्मण्वती (चंबल) नदी के स्नान आदि करने से राजा रन्तिदेव द्वारा अनुमोदित अग्निष्टोमयज्ञ का फल प्राप्त होता है। धर्मज्ञ युधिष्ठिर ! वहां से आगे हिमालय पुत्र अर्बुद (आबू) की यात्रा करे, यहां पहले पृथ्वी में विवर था। वहां महर्षि वसिष्ठ का त्रिलोकविख्यात आश्रम है, जिसमें एक रात रहने से सहस्त्र गोदान का फल मिलता है। नरश्रेष्ठ ! पिंगतीर्थी में स्नान एवं आचमन करके ब्रह्मचारी एवं जितेन्द्रिय मनुष्य सौ कपिलाओं के दान का फल प्राप्त कर लेता है। राजेन्द्र ! तदनन्तर उत्तम प्रभासतीर्थ में जाय । वीर ! उस तीर्थ में देवताओं के मुख्यस्वरूप भगवान् अग्निदेव, जिनके सारथि वायु हैं, सदा निवास करते हैं। उस तीर्थ में स्नान करके शुद्ध एवं संयत चित्त हो मानव अतिरात्र और अग्निष्टोम यज्ञों का फल पाता है। तदनन्तर सरस्वती और समुद्र के संगम में जाकर स्नान करने से मनुष्य सहस्त्र गोदान का फल और स्वर्गलोक पाता है। भरतश्रेष्ठ ! वह पुण्यात्मा पुरूष अपने तेज से सदा अग्नि की भांति प्रकाशित होता है। मनुष्य शुद्धचित्त हो जलों के स्वामी वरूण के तीर्थ (समुद्र) में स्नान करके वहां तीन रात रहे और प्रतिदिन नहाकर देवताओं तथा पितरों का तर्पण करे। ऐसा करने वाले यात्री चन्द्रमा के समान प्रकाशित होता है। साथ ही उसे अश्वमेध का फल मिलता है। भरतश्रेष्ठ ! वहां से वरदानतीर्थ में जाय।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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