महाभारत वन पर्व अध्याय 83 श्लोक 98-121

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त्र्यशीतितम (83) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

महाभारत: वन पर्व: त्र्यशीतितम अध्याय: श्लोक 98-121 का हिन्दी अनुवाद

किंदत्त नामक कूप के समीप जाकर एक प्रस्थ अर्थात् सोलह मुट्ठी तिल प्रदान करे। कुरूश्रेष्ठ ! ऐसा करने से मनुष्य तीनों ऋणों से मुक्त हो परम सिद्धि को प्राप्त होता है। वेदीतीर्थ में स्नान करने से मनुष्य सहस्त्र गोदान फल पाता है। अहन् और सुदिन-ये दो लोकविख्यात तीर्थ हैं। नरश्रेष्ठ ! उन दोनों में स्नान करके मनुष्य सूर्यलोक में जाता है। नृपश्रेष्ठ ! तदनन्तर तीनों लोकों में विख्यात मृगधूमतीर्थ में जाय और वहां गंगाजी के स्नान करे। वहां महादेवजी की पूजा करके मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है। देवीतीर्थ में स्नान करने से मनुष्य को सहस्त्र गोदान का फल मिलता है। तत्पश्चात् त्रिलोकविख्यात वामनतीर्थ में जाय। वहां विष्णुपद में स्नान और वामनदेवता का पूजन करने से मनुष्य सब पापों से शुद्ध हो भगवान् विष्णु के लोक में जाता है। कुलम्पुनतीर्थ में स्नान करके मानव अपने कुल को पवित्र कर देता है। नरव्याघ्र तदनन्तर पवनह्रद में स्नान करे। वह मरूद्गणों का उत्तम तीर्थ है। वह स्नान करने से मानव विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। नरश्रेष्ठ ! शालिहोत्र के शालिसूर्यनामक तीर्थ में विधिपूर्वक स्नान करके मनुष्य सहस्त्र गोदान का फल पाता है। भरतसत्तम नरश्रेष्ठ ! श्रीकुंजनामक सरस्वती तीर्थ में स्नान करने से मानव अग्निष्टोमयज्ञ का फल प्राप्त कर लेता है। कुरूश्रेष्ठ ! तत्पश्चात् नैमिषकुंज की यात्रा करे। राजेन्द्र ! कहते हैं, नैमिषारण्य के प्रवासी तपस्वी ऋषि पहले कभी तीर्थयात्रा के प्रसंग से कुरूक्षेत्र में गये। भरतश्रेष्ठ ! उसी समय उन्होंने सरस्वतीकुंज का निर्माण किया था (वही नैमिषकुंज कहलाता है)। वह ऋषियों का स्थान है, जो उनके लिये महान् संतोषजनक है। उस कुंज में स्नान करके मनुष्य अग्निष्टोमयज्ञ का फल पाता है। धर्मज्ञ ! तदनन्तर परम उत्तम कन्यातीर्थ की यात्रा करे। कन्यातीर्थ में स्नान करने से मानव सहस्त्र गोदान का फल पाता है। राजेन्द्र ! तदनन्तर परम उत्तम ब्रह्मतीर्थ में जाय। वहां स्नान करने से ब्राह्मणतर वर्ण मनुष्य भी ब्राह्मणत्वलाभ करता है। ब्राह्मण होने पर शुद्धचित्त हो वह परम गति को प्राप्त कर लेता है। नरश्रेष्ठ ! तत्पश्चात् उत्तम सोमतीर्थ की यात्रा करे। राजन्! वहां स्नान करने से मानव सोमलोक को जाता है। नरेश्वर ! इसके बाद सप्तसार स्वत नामक तीर्थ की यात्र करे, जहां लोकविख्यात महर्षि मंकणक को सिद्धि प्राप्त हुई थी। राजन् हमारे सुनने में आया है कि वह पहल कभी महर्षि मंगणक के हाथ में कुश का अग्रभाग गड़ गया, जिससे उनके हाथ में घाव हो गया। महाराज ! उस समय उस हाथ से शाक का रस चूने लगा। शाक का रस चूता देख महर्षि हर्षवेश से मतवाले हो नृत्य करने लगे। वीर ! उनके नृत्य करते समय उनके तेज से मोहित हो सारा चराचर जगत् नृत्य करने लगा। राजन् ! नरेश्वर ! उस समय ब्रह्मा आदि देवता तथा तपोधन महर्षिगण-सब ने मंगणक मुनि के विषय में महादेवजी से निवेदन किया- ‘देव ! आप कोई ऐसा उपाय करें, जिससे इनका वह नृत्य बन्द हो जाय।’ महादेवजी देवताओं के हित की इच्छा से हर्षाविश से नाचते हुए मुनि के पास गये और इस प्रकार बोले-‘धर्मज्ञ महर्षे ! मुनिप्रवर ! आप किसलिये नृत्य कर रहे हैं ? आज आप के इस हर्षतिरेकका क्या कारण है ?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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