महाभारत वन पर्व अध्याय 87 श्लोक 1-22
सप्ताशीतितम (87) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
धौम्यद्वारा पूर्वदिशा के तीर्थों का वर्णन
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! पाण्डवों का चित्त अर्जुन के लिये अत्यन्त दीन हो रहा था। वे सब के सब उनसे मिलने को उत्सुक थे। उनकी ऐसी अवस्था देख कर बृहस्पति के समान तेजस्वी महर्षि धौम्य ने उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा-‘पापरहित भरतकुलभूषण ! ब्राह्मणलोग जिन्हें आदर देते है, उन पुण्य आश्रमों, दिशाओं, तीर्थों और पर्वतों का मैं वर्णन करता हूं, सुनो। ‘नरेश्वर ! राजन् ! मेरे मुख से उन सबका वर्णन सुनकर तुम द्रौपदी तथा भाईयों के साथ शोक रहित हो जाओगे। ‘नरश्रेष्ठ पाण्डुन्दन ! इसका श्रवण करनेमात्र से तुम्हें उनके सेवन का पुण्य प्राप्त होगा वहां जाने से सौगुने पुण्य की प्राप्ति होगी। ‘महाराज युधिष्ठिर ! मैं अपनी रमणीयशक्ति के अनुसार सबसे पहले राजर्षिगणोंद्वारा सेवित रमणीय प्राची दिशा का वर्णन करूंगा। भरतनन्दन ! देवर्षिसेवित प्राची दिशा में नैमिष नामक तीर्थ है, जहां भिन्न-भिन्न देवताओं के अलग-अलग पुण्यतीर्थ हैं। ‘जहां देवर्षिसेवित परम रमणीय पुण्यमयी गोमती नदी है। देवताओं की यज्ञभूमि और सूर्य का यज्ञपात्र विद्यमान है। ‘प्राची दिशा में ही पुण्यपर्वत श्रेष्ठ गय है, जो राजर्षि गय के द्वारा सम्मानित हुआ है। वहां कल्याणमय ब्रह्मसरोवर है, जिसका देवर्षिगण सेवन करते हैं। ‘पुरूषसिंह ! उस गया के विषय में ही प्राचीन लोग में कहा करते हैं कि ‘बहुत से पुत्रों की इच्छा करनी चाहिये; सम्भव है उनमें से एक ही गया जाय या अश्वमेध यज्ञ करे अथवा नीलवृष का उत्सर्ग करे। ऐसा पुरूष अपनी संतति द्वारा इस पहले की ओर से बाद की पीढि़यों का उद्धार कर देता है’। ‘राजन् ! वहीं महानदी और गयशीर्ष तीर्थ है, जहां ब्राह्मणों ने अक्षयवट की स्थिति बतायी है जिसके जड़ और शाखा आदि उपकरण कभी नष्ट नहीं होते। ‘प्रभो ! वहां पितरों के लिये दिया हुआ अन्न अक्षय होता है। भरतश्रेष्ठ ! वहीं फल्गु नामवाली पुण्यसलिला महानदी है और वहीं बहुत से फल-मूलों वाली कौशिकी नदी प्रवाहित होती है जहां तपोधन विश्वामित्र ब्राह्मणतत्व को प्राप्त हुए थे। ‘पूर्वदिशा में ही पुण्यनदी गंगा बहती है, जिसके तटपर राजा भगीरथ ने प्रचुर दक्षिणावाले बहुत से यज्ञों का अनुष्ठान किया था। ‘उसी यज्ञ में विश्वामित्र का अलौकिक वैभव देखकर जमदग्निनन्छन परशुराम ने उनके वंश के अनुरूप यक्ष का वर्णन किया था। ‘विश्वामित्र जी ने कान्यकुब्जदेश में इन्द्र के साथ सोमपान किया; वहीं वे क्षत्रियत्व से ऊपर उठ गये और ‘मैं ब्राह्मण हूं’ यह बात घोषित कर दी। ‘वीरवर ! गंगा और यमुना का परम उत्तम पुण्यमय पवित्र संगम सम्पूर्ण जगत् में विख्यात है और बड़े-बड़े महर्षि उसका सेवन करते हैं। ‘जहां समस्त प्राणियों के आत्मा भगवान् ब्रह्मजी ने पहले ही यज्ञ किया था। भरतकुलभूषण ! ब्रह्माजी के उस प्रकृष्टयाग से ही उस स्थान का नाम ‘प्रयाग’ हो गया। ‘कालंजर पर्वत पर हिरण्यबिन्दु नाम से प्रसिद्ध महान् तीर्थ बताया गया है। आगस्त्यपर्वत बहुत ही रमणीय, पवित्र, श्रेष्ठ एवं कल्याणस्वरूप है। ‘कुरूनन्दन ! महात्मा भार्गव का निवास स्थान महेन्द्र पर्वत है। कुन्तीनन्दन ! वहां ब्रह्माजी ने पूर्वकाल में यज्ञ किया था। ‘युधिष्ठिर ! जहां पुण्यसलिला भागीरथी गंगा सरोवर में स्थित थी।
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