महाभारत वन पर्व अध्याय 88 श्लोक 1-18
अष्टाशीतितम (88) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
धौम्यमुनि द्वारा दक्षिणदिशावर्ती तीर्थों का वर्णन
धौम्यजी कहते हैं-भरवंशी युधिष्ठिर ! अब मैं अपनी बुद्धि के अनुसार दक्षिणदिशावर्ती पुण्यतीर्थों का विस्तारपूर्वक वर्णन करता हूं। दक्षिण में पुण्यमयी गोदावरी नदी बहुत प्रसिद्ध है, जिसके तटपर अनेक बगीचे सुशोभित हैं। उसके भीतर अगाध जल भरा हुआ है। बहुत-से-तपस्वी उसका सेवन करते हैं तथा वह सबके लिये कल्याणस्वरूपा है। वेणा और भीमरथी-ये दो नदियां भी दक्षिण में ही हैं, जो समस्त पापभय का नाश करनेवाली हैं। उसके दोनों तट अनेक प्रकार के पशुपक्षियों से व्याप्त और तपस्वीजनों के आश्रमों से विभूषित हैं। भरतकुलभूषण! राजा नृग की नदी पयोष्णी भी उधर ही है, जो रमणयी तीर्थों और अगाध जल से सुशोभित है। द्विज उसका सेवन करते हैं। इस विषय में हमारे सुनने में आया है कि महायोगी एवं महायशस्वी मार्कण्डेय ने यजमान राजा नृग के समान उसके वंश के योग्य यशोगाथा का वर्णन इस प्रकार किया था-‘पयोष्णी के तटपर उत्तम वाराहतीर्थ में यज्ञ करनेवाले राजा नृग के यज्ञ में इन्द्र सोमपान करके मस्त हो गये थे। और प्रचुर दक्षिणा पाकर ब्राह्मणलोग भी हर्षोल्लास से पूर्ण हो गये थे।’ पयोष्णी का जल हाथ में उठाया गया हो या धरती पर पड़ा हो अथवा वायु के वेग से उछलकर अपने ऊपर पड़ गया हो वह जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त किये हुए समस्त पापों को हर लेता है। जहां भगवान् शंकर का स्वयं ही अपने लिये बनाया हुआ शंृगनामक वाद्यविशेष स्वर्ग से भी ऊंचा और निर्मल है, उसका दर्शन करके मरणधर्मा मानव शिवधाम में चला जाता है। एक ओर अगाध जलराशि से भरी हुई गंगा आदि सम्पूर्ण नदियां हो और दूसरी ओर केवल पुण्यसलिला पयोष्णी नदी हो तो वही अन्य सब नदियों की अपेक्षा श्रेष्ठ है; ऐसा मेरा विचार है। भरतश्रेष्ठ ! दक्षिण में पवित्र माठन-वन है, जो प्रचुर फलमूल से सम्पन्न हो कल्याणस्वरूप है। वहां वरूणस्त्रोतसनामक पर्वतमाठर (सूर्यके पाश्र्ववर्ती देवता) का विजय स्तम्भ सुशोभित होता है। यह स्तम्भ प्रवेणी-नदी के उत्तरवर्ती के मार्ग में कण्व के पुण्यमय आश्रम में है। इस प्रकार जैसा कि मैंने सुन रखा था, तपस्वी महात्माओं के निवास योग्य वनों का वर्णन किया है। तात ! शूर्पारक्षेत्र में महात्मा जमदग्निकी वेदी है। भारत! वहीं रमणयी पाषाणतीर्था और पुनश्चन्द्रा नामक तीर्थ-विशेष हैं। कुन्तीनन्दन ! उसी क्षेत्र में अशोकतीर्थ है, जहां महर्षियों के बहुत से आश्रम हैं। युधिष्ठिर ! पाण्डव देश के भीतर पवित्र कुमारी कन्याएं (कन्याकुमारी तीर्थ) कही गयी हैं। कुन्तीकुमार ! अब मैं तुमसे ताम्रपर्णी नदी की महिमा का वर्णन करूंगा, सुनो। भरतनन्दन ! वहां मोक्ष पाने की इच्छा से देवताओं ने आश्रम में रहकर बड़ी भारी तपस्या की थी। वहां का गोकर्णतीर्थ तीनों लोकों में विख्यात है। तात ! गोकर्णतीर्थ में शीतल जल भरा रहता है। उसकी जलराशि अनन्त है। वह पवित्र, कल्याणमय और शुभ है।। जिनका अन्तःकरण शुद्ध नहीं है, ऐसे मनुष्यों के लिये गोकर्णतीर्थ अत्यन्त दुर्लभ है। वहां अगस्त्य के शिष्य का पुण्यमय आश्रम है, जो वृक्षों और तृण आदि से सम्पन्न एवं फल-मूलों से परिपूर्ण है। देवसम नामक पर्वत ही वह आश्रम है। वहां परम सुन्दर मणिमय वैदूर्यपर्वत है, जो शिवस्वरूप है। उसी पर महर्षि अगस्त्य का आश्रम है, जो प्रचुर फल-मूल और जल से सम्पन्न है।
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