महाभारत वन पर्व अध्याय 96 श्लोक 19-29

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

षण्‍णवतितम (96) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

महाभारत: वन पर्व: षण्‍णवतितम अध्‍याय: श्लोक 19-29 का हिन्दी अनुवाद

तब भगवान महर्षि अगस्‍त्‍य ने संतानोत्‍पादन की चिन्‍ता करते हुए अपने अनुरुप संतान को गर्भ में धारण करने के लिये योग्‍य पत्‍नी का अंनुसंधान किया परंतु उन्‍हें कोई योग्‍य स्‍त्री दिखायी नहीं दी । तब उन्‍होंने एक–एक जन्‍तु के उतमोतम अंगों का भावना द्वारा संग्रह करके उन सबके द्वारा एक परम सुन्‍दर स्‍त्री का निर्माण किया । उन दिनों विदर्भराज पुत्र के लिये तपस्‍या कर रहे थे। महातपस्‍वी अगस्‍त्‍यमुनि ने अपने लिये निर्मित की हुई वह स्‍त्री राजा को दे दी । उस सुन्‍दरी कन्‍या का उस राजभवन में बिजली के समान प्रादुर्भाव हुआ। वह शरीर से प्रकाशमान हो रही थी। उसका मुख बहुत सुन्‍दर था, वह राजकन्‍या वहां दिनों दिन बढंने लगी । भरतनन्‍दन! राजा विदर्भने उस कन्‍या के उतपन्‍न होते ही हर्ष में भरकर ब्राह्माणों को यह शुभ संवाद सुनाया । राजन्! उस समय सब ब्राहृाणों ने राजा का अभिनन्‍दन किया और उस कन्‍या का नाम ‘लोपामुद्रा’रख दिया । महाराज! उतम रुप धारण करनेवाली वह राजकुमारी जल में कमलिनी तथा यज्ञवेदीपर प्रज्‍वलित शुभ अग्रिशिखा की भांति शीघ्रतापूर्वक बढ़ने लगी । राजेन्‍द्र! जब उसने युवावस्‍था में पदार्पण किया, उस समय उस कल्‍याणी कन्‍या को वस्‍त्राभूषणों से विभूाषित सौ सुन्‍दरी कन्‍याएं और सौ दासियां उसकी आज्ञा के अधीन होकर घेरे रहतीं और उसकी सेवा किया करती थीं । सौ दासियो और सौ कन्‍याओं के बीच में वह तेजस्विनी कन्‍या आकाश में सूर्य की प्रभा तथा नक्षत्रों में रोहिणी के समान सुशोभित होती थी । यद्यपि वह युवती ओर शील एवं सदाचार से सम्‍पन्‍न थी तो भी महात्‍मा अगस्‍त्‍य के भय से किसी राजकुमार ने उसका वरण नहीं किया। वह सत्‍यवती राजकुमारी रुप में अप्‍सराओं से भी बढ़कर थी। उसने अपने शील – स्‍वभावसे पिता तथा स्‍वजनों को संतुष्‍ट कर दिया था । पिता विदर्भराजकुमारी को युवावस्‍था में प्रविष्‍ट हुई देख मन ही मन यह विचार करने लगे कि, इस कन्‍या का किसके साथ विवाह करुँ ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।