महाभारत वन पर्व अध्याय 98 श्लोक 1-20
अष्टनवतितमो (98) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
धन प्राप्त करने के लिये अगस्त्य का श्रुतर्वा, ब्रघ्नश्र्व और त्रसदस्यु आदि के पास जाना लोमशजी कहते हैं- कुरुनन्दन ! तदनन्तर अगस्त्यजी धन मॉंगने के लिये महाराज श्रुतर्वा के पास गये, जिन्हें वे सब राजाओं से अधिक वैभवसम्पन्न समझते थे । राजा को जब यह मालूम हुआ कि महर्षि अगस्त्य मेरे यहां आ रहे हैा, तब वे मन्त्रियों के साथ अपने राज्य की सीमा पर चले आये और बड़े आदर– सत्कार से उन्हें अपने साथ लिवा ले गये । भूपाल श्रुतर्वाने उनके लिये यथायोग्य अर्घ्य निवेदन करके विनितभाव से हाथ जोड़कर उनके पधारने का प्रयोजन पूछा । तब अगस्त्यजी ने कहा- पृथ्वीपते! आपको मालूम होना चाहिएकि मैं धन मॉंगने के लिये आपके यहां आया हूँ। दूसरे प्राणियें को कष्ट न देते हुए यथाशक्ति अपने धन का जितना अंश मुझे दे सकें,दे दें । लोमशजी कहते हैं- युधिष्ठिर! तब राजा श्रुतर्वाने महर्षि के सामने अपने आय व्यय का पूरा ब्योरा रख दिया और कहा ‘ज्ञानी महर्षें! इस धन में से जो आप ठीक समझें वह ले लें’ । ब्रहृार्षि अगस्त्य की बुद्धि सम थी। उन्होंने आय और व्यय दोनों को बराबर देखकर यह विचार किया कि इसमें से थोड़ा सा भी धन लेने पर दूसरे प्राणियों को सर्वथा कष्ट हो सकता है । तब वे श्रुतर्वाको साथ लेकर राजा ब्रघश्र्व के पास गये । उन्होंने भी अपने राज्य की सीमापर आकर उन दोनों सम्माननीय अतिथियों की अगवानी की और विधिपूर्वक उन्हें अपनाया । ब्रघ्नश्र्वने उन दोनों को अर्घ्य और पाद्य निवेदन किये, फिर उनकी आज्ञा ले अपने यहां पधारने का प्रयोजन पूछा। अगस्त्यजी ने कहा– पृथ्वी! आपको विदित हो कि हम दोनों आपके यहां धन की इच्छा से आये है। दूसरे प्राणियों कष्ट न देते हुए जो धन आपके पास बचता हो, उसमें से यथाशक्ति कुछ भाग हमें भी दीजिये । लोमशजी कहते है- युधिष्ठिर! तब राजा ब्रघ्नश्रृवने भी उन दोनों के सामने आय और व्यय का पूरा विवरण रख दिया और कहा–‘आप दोनों को इसमें जो धन अधिक जान पडता हो, वह ले लें’ । तब समान बुद्धिवाले ब्रह्मार्षि अगस्त्य ने उस विवरण में आय और व्यय बराबर देखकर यह निश्चय किया कि इसमें से यदि थोड़ा सा भी धन लिया जाय तो दूसरे प्राणियें को सर्वथा कष्ट हो सकता है । तब अगस्त्य,श्रुतर्वा और ब्रघ्नश्र्व- तीनों पुरुकुत्सनन्दन महाधनी त्रसदस्यु के पास गये । महाराज! भूपालों श्रेष्ट इक्ष्वाकुवंशी महामना त्रसदस्यु ने उन्हें आते देख राज्य की सीमापर पहुँचकर विधिपूर्वक उन सबा स्वागत–सत्कार किया और उन सबसे अपने यहां पधारने का प्रयोजन पूछा । लोमशजी कहते हैं- युधिष्ठिर! तब रजा ने उन्हें अपने आय-व्यय का पूरा विवरण दे दिया और कहा- ‘इसे समझकर जो धन शेष बचता हो, वह आपलोग ले लें। ‘समबुद्धिवाले महर्षि अगस्त्य ने वहॉं भी आय- व्यय का लेखा बराबर देखकर यही माना कि इसमें से धन लिया जाय तो दूसरे प्राणियों को सर्वथा कष्ट हो सकता है । महाराज! तब वे सब राजा परस्पर मिलाकर एक दूसरे की ओर देखते हुए महामुनि अगस्त्य से इस प्रकार बोले । ‘ब्रह्मान्! यह इल्वल दानव इस पृथ्वी सबसे अधिक धनी है । हम सब लोग उसी के पास चलकर आज धन मॉंगे’ । लोमशजी कहते हैं- युधिष्ठिर! उस समय उन सबको इल्वल के यहॉं याचना करना ही ठीक जान पड़ा अत: वे एक साथ होकर इल्वल के यहॉं शीघ्रतापूर्वक गये ।
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