महाभारत विराट पर्व अध्याय भाग-2
षोडश (16) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व)
सैरन्ध्री बोली - महारानी ! उसे दूसरे ही लोग मार डालेंगे, जिनका कि अपराध वह कर रहा है। मैं तो समझती हूँ, अब वह निश्चय ही यमलोक की यात्रा करेगा। रानी ! आज तुम अपने भाई के लिये शीघ्र ही जीवित श्राद्ध कर लो। उसके लिये आवश्यक दान ले लो। साथ ही उसे आँख भरकर देख लो। मेरा विश्वास है कि अब उसके प्राण नहीं रहेंगे। मेरे पाँच धर्मात्मा पतियों में से एक अत्यन्त दुःसह एवं अमर्षशील वीर है। वे कुपित होने पर इस रात में ही इस संसार को मनुष्यों से शून्य कर सकते हैं। परंतु इच्छानुसार रूप धारण करने वाले वे गन्धर्व न जाने क्यों अभी तक क्रोध नहीं कर रहे हैं। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! रानी सुदेष्णा से ऐसा कहकर दुःख से मोहित हुई सैरन्ध्री ने कीचक के वध के लिये व्रत की दीक्षा ग्रहण की। दूसरी स्त्रियों ने उससे प्रार्थना की। रानी सुदेष्णा ने भी उसे बहुत मनाया; तथापि न वह स्नान करती, न भोजन करती और न अपने शरीर की धूल ही झाड़ती थी। उसका मुँह रक्त से भींगा हुआ था, आँखों में रुलाई के आँसू भरे हुए थे। उसे इस प्रकार शोक से संतप्त होकर रोती देख सब स्त्रियाँ मन-ही-मन कीचक के वध की इच्छा करने लगी। जनमेजय बोले- विप्रवर ! संसार की युवतियों में श्रेष्ठ एवं पतिव्रता महाभागा द्रौपदी को कीचक ने लात मार दी; इससे वह महान् दुःख में डूब गयी। अहो ! यह कितने कष्ट की बात है। जिस समय सिन्धुराज जयद्रथ ने बलपूर्वक उसका अपहरण किया था, उस समय उसने अपने पतियों की बहिन दःशला का सम्मान करते हुए वह कष्ट सह लिया और शुभलक्ष्णा सिन्धुराज को कोई शाप नहीं दिया। परंतु जब दुरात्मा कीचक ने उसका तिरस्कार किया और उसे लात से मारा, उस समय महाभागा कृष्णा ने उस दुष्ट को शाप क्यों नहीं दे दिया ? देवी द्रौपदी तेज की राशि थी। वह धर्मज्ञा और सत्यवादिनी थी। उसके जैसी तेजस्विनी स्त्री अपने केश पकड़ लिये जाने पर असमर्थ की भाँति चुपचाप सह लेगी, यह सम्भव नहीं है। यदि उसने सह लिया, तो इसका कोई छोटा कारण नहीं होगा। साधुशिरोमणे ! मैं वह कारण सुनना चाहता हूँ। कृष्णा के क्लेश की बात सुनकर मेरा मन अत्यन्त व्यथित हो रहा है। मुने मत्स्यराज का साला दुष्ट कीचक किसके कुल में उत्पन्न हुआ था ? असैा वह बल से उन्मत्त क्यों हो गया था ? वैशम्पायनजी ने कहा - कुरुकुल की कीर्ति बढ़ाने वाला 1893 नरेश ! तुम्हारा उठाया हुआ यह प्रश्न ठीक है। मैं यह सब विस्तार पूर्वक बताऊँगा। राजन् ! क्षत्रिय पिता और ब्राह्मणी माता से उत्पन्न हुआ बालक ‘सूत’ कहलाता है। प्रतिलोमसंकर जातियों में अकेली यह सूत जाति ही द्विज कही गयी है। द्विजोचित कर्मों से युक्त उस सूत को ही रथकार भी कहते हैं। इसे क्षत्रिय से हीन और वैश्य से श्रेष्ठ बताते हैं। राजन् ! पहले के नरेशों ने सूतजाति के साथ भी वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया है, परंतु उन्हें राजा की उपाधि नहीं प्राप्त होती थी। उनके लिये सूतों के नाम से सूतराज्य ही नियत कर दिया गया था। वह राज्य सूतजाति के एक पुरुष ने किसी क्षत्रिय राजा की सेवा करके ही प्राप्त किया था।
« पीछे | आगे » |