महाभारत विराट पर्व अध्याय 16 श्लोक 23-37
षोडश (16) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व))
‘जो सदा दूसरों को देते हैं, किन्तु किसी से याचना नहीं करते, जो ब्राह्मण भक्त तथा सत्यवादी हैं, उन्हीं की मुझ मानिनी पत्नी को सूतपुत्र ने लात मारी है। ‘जिनके धनुष की अंकार सदा देव-दुन्दुभियों की गम्भीर ध्वनि के समान सुनायी पड़ती है, उन्हीं की मुझ मानिनी पत्नी को सूतपुत्र ने लात से मारा है। ‘जो तपस्वी, जितेनिद्रय, बलवान् और अत्यन्त मानी हैं, उन्हीं की मुझ मानिनी पत्नी पर सुतपुत्र ने पैर से आघात किया है। ‘मेरे पति इस सम्पूर्ण संसार को मार सकते हैं; किंतु वे धर्म के बन्धन में बँधे हैं, इसी से आज उनकी मुण् मानिनी पत्नी पर सूतपुत्र ने पैर से प्रहार किया।‘जो शरण चाहने वाले अथवा शरण में आये हुए सब लोगों को शरण देते हैं, वे मेरे महारथी पति अपने स्वरूप को छिपाकर आ जगत् में कहाँ विचर रहे हैं ? जो अमिततेजस्वी और बलवान् हैं, वे (मेरे पति) एक सूतपुत्र द्वारा मारी जाती हुई अपनी सती-साध्वी प्रिय पत्नी का अपमान कायरों और नपुंसकों की भाँति कैसे सहन कर रहे हैं ? ‘आज उनका अमर्ष, पराक्रम और तेज कहाँ है , जो एक दुराचारी की मार खाती हुई अपनी पत्नी की रक्षा नहीं करते हैं। यहाँ का राजा विराट भी धर्म को कलंकित करने वाला है; जो मुझ निरपराध अबला को अपने सामने मार खाती देखकर भी सहन किये जाता है। भला, इसके रहते मैं इस अपमान का बदला चुकाने के लिये क्या कर सकती हूँ ? 1889 ‘यह राजा होकर भी कीचक के प्रति कुछ भी राजोचित न्याय नहीं कर रहा है। मत्स्रूराज ! तुम्हारा यह लुटेरों का सा धर्म इस राजसभा में शोभा नहीं देता। तुम्हारे निकट इस कीचक द्वारा मुझ पर मार पड़ी, यह कदापि उचित नहीं कहा जा सकता। यहाँ जो सभासद बैठे हैं, वे भी कीचक का यह अत्याचार देखें। ‘कीचक को धर्म का ज्ञान नहीं है और मत्स्यराज भी किसी प्रकार धर्मज्ञ नहीं हैं तथा जो इस अधर्मी राजा के पास बैइते हैं, वे सभासद् भी धर्म के ज्ञाता नहीं हैं’। वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! उत्तम वर्णवाली द्रौपदी ने उस समय आँखें में आँसू भरकर ऐसे वचनों द्वारा मत्स्यराज को बहुत फटकारा और उलाहना दिया। तब विराट बोले- सैरन्ध्री ! हमारे परोक्ष तुम दोनों में किस प्रकार कली हुआ है; इसे मैं नहीं जानता और वास्तविक बात को जाने बिना न्याय करने में मेरा क्या कौशल प्रकट होगा ? वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर सभासदों ने सारा रहस्य जानकर द्रौपदी की बार-बार सराहना की। उे अनेक बार साधुवाद दिया और कीचक की निन्दा करते हुए उसे बहुत धिक्कारा। सभासद् बोले- सम्पूर्ण मनोहर अंगों से सुशोभित यह बड़े-बड़े नेत्रों वाली साध्वी जिसकी धर्मपत्नी है, उसे जीवन में बहुत बड़ा लाभ मिला है। वह किसी प्रकार शोक नहीं कर सकता।
« पीछे | आगे » |