महाभारत विराट पर्व अध्याय 19 श्लोक 1-14

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एकोनविंश (19) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व))

महाभारत: विराट पर्व एकोनविंशोऽध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


पाण्डवों के दःख से दुःखित द्रौपदी का भीमसेन के सम्मुख विलाप करना द्रौपदी बोली- भारत ! अब जो दुःख मैं तुमसे निवेदन करने वाली हूँ, वह तो मेरे लिये और भी महान् है। तुम इसके लिये मुण्े दोष न देना। मैं दुःख से व्यथित होने के कारएा ही यह सब कह रही हूँ।भरतर्षभ ! जो तुम्हारे लिये सर्वथा अयोग्य है, ऐसे रसोइये के नीच कान में लगे हो और अपने को ‘बल्लव’ जाति का मनुष्य बताते हो। इस अवस्था में तुम्हें देखकर किसका शोक न बढ़ेगा ? लोग तुम्हें राजा विराट के रसोइये बल्लव के नाम से जानते 1900 हैं। तुम स्वामी होकर भी आज सेवक की दशा में पडत्रे हो। इससे बढ़कर महान् कष्ट मेरे लिये और क्या हो सकता है ? जब पाकशाला में भोजन बना लने पर तु विराट की सेवा में उपस्थित होते हो और कहते हो- ‘महारा ! बल्लव रसोइया आपको भोजन के लिये बुलाने आया है’, तब यह सुनकर मेरा मन दुःखित हो जाता है । जब विराटनरेश प्रसन्न होकर तुम्हें हाथियों से लड़ाते हैं, उस समय रनिवास की दूसरी स्त्रियाँ तो हँसती हैं और मेरा हृदय शोक से व्याकुल हो उठता है। जब रानी सुदेष्णा दर्शक बनकर बैठती हैं और तुम महल के आँगन में व्याघ्रों, सिंहों तथा भैसों से लड़ते हो, उस समय मुझे बड़ी व्यथा होती है। एक दिन उक्त पशुओं से तुम्हारा युद्ध देखकर उठने के बाद मुझ निर्दोष अंगों वाली अबला को इसी कारण शोक-पीडि़त सा देख केकयराजकुमारी सुदेष्णा अपने साथ आयी हुई सम्पूर्ण दासियों से और वे खड़ी हुई दासियाँ रानी कैकेयी से इसए प्रकार कहने लगीं- ‘यह पवित्र मुसकान वाली सैरन्ध्री पहले (युधिष्ठिर के यहाँ) एक स्थान में साथ-साथ रहने के कारण पैदा होने वाले स्नेह से अथवा धर्म से प्रेरित होकर उस महापराक्रमी रसोइये को पशुओं से लड़ते देख उसके लिये बार-बार शोक करने लगती है। सैरन्ध्री रूप तो मंगलमय है ही, बल्लव भी बड़ा सुन्दर है। ‘स्त्रियों के हृदय को समझ लेना बहुत कठिन है, हमें तो यह जोड़ी अच्छी जान पड़ती है। सैरन्ध्री अपने प्रिय सम्बन्ध के कारण जब रसोइये को हाथी आदि से लड़ाने की बात की जाती है, तब (अत्यन्त दीन से होकर) सदा करूणायुक्त वचन बालने लगती है। ‘क्यों न हो, इस राजपरिवार में भी तो ये दोनों एक ही समय से निवास करते हैं ?’ इस तरह की बातें कहकर रानी सुदेष्णा प्रायः नित्य मुझे झिड़का करती हैं। और मुझे क्रोध करती देख तुम्हारे प्रति मेरे गुप्त प्रेम की आशंका कर बैठती हैं। जब-जब वे वैसी बातें कहती हैं, उस समय मुझे बहुत दुःख होता है। भीम ! भयंकर पराक्रम दिखाने वाले होकर भी तुम ऐसे नरकतुल्य कष्ट भोग रहे हो और उधर महाराज युधिष्ठिर को भी भारी शोक सहन करना पड़ता है। इस प्रकार मैं दुःख के समुद्र में डूबी हुई हूँ। अब मुझे जीवित रहने का तनिक भी उत्साह नहीं है। वह तरुण वीर अर्जुन, जो अकेले ही रथ में बैठकर सम्पूर्ण मनुष्यों तथा देवताओं पर भी विजय पा चुका है, आज राजा विराट की कन्याओं को नाचना सिखाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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