महाभारत विराट पर्व अध्याय 19 श्लोक 32-43
एकोनविंश (19) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व))
जिन कुन्तीनन्दन अर्जुन ने ऐन्द्र, वरुण, वायव्य, ब्राह्म, आग्नेय और वैष्णव अस्त्रों द्वारा अग्निदेव को तृप्त करते हुए एकमात्र रथ की सहायता से सब देवताओं को जीत लिया, जिनका आत्मबल अचिन्त्य है, जो अपने दिव्ययस्त्रों द्वारा समस्त शत्रुओं का नाश करने में समर्थ हें, जिन्होंने एकमात्र
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रथपर आरूढ़ हो दिव्य गान्धर्व, वायवय, वैरूणव, पाशुपात तथा स्थूणाकर्ण नामक अस्त्रों का प्रदर्शन करते हुए युद्ध में निवातकवचों सहित भयंकर पौलोम और कालकेय आदि महान् असुरों को, जो इन्द्र से शत्रुता रचाने वाले थे, परास्त कर दिया था, वे ही अर्जुन आज अन्तःपुर में उसी प्रकार छिपे बैठे हैं, जैसे प्रज्वलित अग्नि कुएँ में ढक दी गयी हो। जैसे बड़ा भारी साँड़ गोशालाओं मे ंआबद्ध हो, उसी प्रकार स्त्रियों के वेष से विकृत अर्जुन को कन्याओं के अन्तःपुर में देखकर मेरा मन बार-बार कुन्तीदेवी की याद करता है। भारत ! इसी प्रकार तुम्हारे छोटे भाई सदिेव को, जो गौओ का पालक बनाया गया है, जब गौओं के बीच ग्वाले के वेष में आते देखती हूँ, तो मेरा रक्त सूख जाता है और सारा शरीर ढीला पड़ जाता है। भमसेन ! सहदेव की दुर्दशा का बार-बार चिन्तन करने के कारण मुझे कभी नींद तक नहीं आती; फिर सुख कहाँ से मिल सकता है ? महाबाहो ! जहाँ तक मैं जानती हूँ, सहदेव ने कभी कोई पाप नहीं किया है, जिससे इस सत्यपराक्रमी वीर को ऐसा दुःख उठाना पडत्रे। भरतश्रेष्ठ ! साँड़ के समान हृष्ट-पुष्ट तुम्हारे प्रिय भ्राता सहदेव को राजा विराट के द्वारा गौओं की सेवा में लगाया गया देख मुझे बड़ा दुःख होता है। गेरू आदि से लाल रंग का श्रंगार धारण किये ग्वालों के अंगुआ बने हुए सहदेव को उद्विग्न होने पर भी जब में राजा विराट का अभिनन्दन करते देखती हूँ, तब मुझे बुखार चढ़ आता है। वीर ! आर्या कुन्ती मुझसे सहदेव की सदा प्रशंसा किया करती थीं कि यह महान् कुल में उत्पन्न, शीलवान् और सदाचारी है। मुझे स्मरण है, जब सहदेव महान् वन में आने लगे, उस समय पुत्रवत्सला माता कुन्ती उन्हें हृदय से लगाकर खड़ी हो गयीं और रोती हुई मुझसे यों कहने लगीं- ‘याज्ञसेनी ! सहदेव बड़ा लज्जाशील, मधुरभाषी और धार्मिक है। यह मुझे अत्यनत प्रिय है। इसे वन में रात्रि के समय तुम स्वयं सँभालकर (हाथ पकड़कर) ले जाना, क्योकि यह सुकुमार है (सम्भव है, थकावट के कारण चल न सके)। मेरा सहदेव शुरवीर, राजा युधिष्ठिर का भक्त, अपने बड़े भाई का पुजारी और वीर है। पान्चालराजकुमारी ! तुम इसे अपने हाथों भोजन कराना। पाण्डुनन्दन ! योद्धाओं में श्रेष्ठ उसी सहदेव कसे जब मै गौओं की सेवा में तत्पर और बछड़ों के चमड़े पर रात में सोते देखती हूँ, तब किसलिये जीवन धारण करूँ ? इसी प्रकार जो सुन्दर रूप, अस्त्रबल और मेधाशक्ति- इन तीनों से सदा सम्पन्न रहता है, वह वीरवर नकुल आज विराट के यहाँ घोड़े बाँधता है। देखो, काल की कैसी विपरीत गति है ? जिसे देखकर शत्रुओं के समुदाय बिखर जाते - भाग खड़े होते हैं, वही अब ग्रन्थित बनकर घोड़ों की रास खोलता और बाँधता है तथा तहाराज के सामने अश्वों को वेग से चलने की शिक्षा देता है।
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