महाभारत विराट पर्व अध्याय 21 श्लोक 33-45
एकविंश (21) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवध पर्व)
राजा विराट देखते रह गये। कंक तथा अन्य लोगों ने भी यह सब देखा। रथी, पीठमर्द (राजा के प्रिय व्यक्ति), महावत, वैदिक विद्वान तथा नागरिक- सबकी दृष्टि में यह बात आयी थी। मैंने राजा विराट और कंक को बार-बार फटकारा, तो भी राजा ने न तो उसे मना किया और न उसकी उद्दण्डता का दमन ही किया। राजा विराट का यह जो कीचक नाम वाला सारथि है, इसने धर्म को त्याग दिया है। यह अत्यन्त क्रूर है, तो भी विराट सुदेष्णा दोनों पति पत्नी उसे बहुत मानते हैं। यह उनका प्रिय सेनापति है। इसे अपनी शूरवीरता का बडत्रा अभिमान है। यह पापात्मा सब बातों में मूर्ख है। महाभाग ! यह परायी स्त्रियों पर बलात्कार करता और लोगों से बहुत धन हड़पता रहता है। लोग रोते-चिल्लाते रह जाते हैं; किंतु यह उनका सारा धन हड़प लेता है। यह सन्मार्ग में स्थिर नहीं रहता तथा धर्मोपार्जन भी नहीं करना चाहता है। यह पापात्मा है;इयसके मन में पाप की ही वासना है। यह कामदेव के बाणों से विवश हो रहा है। उद्दण्ड और दुष्टात्मा तो है ही। मैंने बरर-बार इसकी प्रार्थना ठुकरायी है।। अतः यह जब-जब सामने आयेगा, मुझे मारेगा। सम्भव है, किसी दिन मुझे जीवन से भी हाथ धोना पड़े। उस दशा में धर्म के लिये प्रयत्न करने वाले तुम सब लोगों का सबसे महान् धर्म नष्ट हो जायेगा। यदि तुम लोग प्रतिज्ञा के अनुसार तेरह वर्ष की अवधि का पालन करते रहागे, तो तुम्हारी यह भार्या जीवित न रहेगी। भार्या की रक्षा करने पर संतान की रक्षा होती है। संतान की रक्षा होने पर अपना आत्मा सुरक्षित होता है। आत्मा ही पत्नी के गर्भ से पुत्ररूप में जन्म लेती है। इसीलिये हद्वान पुरुष पत्नी को ‘जाया’ कहते हैं। मैंने वर्णधर्म का उपदेश देने वाले ब्राह्मणों के मुँह से सुना है, पत्नी को पति की रक्षा इसलिये करनी चाहिये कि वह किसी दिन मेरे किसी दिन मेरे पेट से जन्म लेगा। महाबली भीमसेन ! क्षत्रिय के लिये सदा शत्रुओं का संहार करने के सिवा और कोई धर्म नहीं है। कीचक ने धर्मराज युधिष्ठिर के देखते-देखते और तुम्हारी आँखों के सामने मुझे लात मारी है। तुमने उस भयंकर राक्षस जटासुर से मेरी रक्षा की है। भाइयों सहित तुमने जयद्रथ को भी परास्त किया है। अतः अब इस महापापी कीचक को भी मार डालो, जो मेरा अपमान कर रहा है।
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