महाभारत विराट पर्व अध्याय 24 श्लोक 19-32
चतुर्विंश (24) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवध पर्व)
उसे देखकर कन्याओं ने कहा- सैरन्ध्री ! सौभाग्य की बात है कि तुम संकट से मुक्त हो गयी और सौभाग्य से यहाँ पुनः लौट आयीं। वे सूतपुत्र जो तुम्हें बिना किसी अपराध के ही कष्ट दे रहे थे, मार दिये गये, यह भी भाग्यवश अक्ष्च्छा ही हुआ। बृहन्नला ने पूछा- सैरन्ध्री ! तू उन पापियो के हाथ से कैसे छूटी ? ओर वे पापी कैसे मारे गये ? मैं ये सब बातें तेरे मुख से ज्यों-की-त्यों सुनना चाहती हूँ। सैरन्ध्री बोली- बृहन्नले ! अब तुम्हें सैरन्ध्री से क्या काम है ? कल्याणी ! तुम तो मौज से इन कन्याओं के अन्तःपुर में रहती हो। सैरन्ध्री जो दुःख भोग रही है, उसे दूर तो करोगी नहीं या उसका अनुभव तो तुम्हें होगा नहीं ; इसीलिये मुण् दुखिया की हँसी उड़ाने के लिये ऐसा प्रश्न कर रही हो ? बृहननला ने कहा- कल्याणी ! पशुओं की सी नीच या नपुसक योनि में पड़कर बृहन्नला भी महान् दुःख भोग रही है, तू अभी भोली-भाली है; इसीलिये बृहन्नला को नहीं समझ पाती। सुश्रोणि ! तेरे साथ तो मैं रह चुकी हूँ और तू भी हम सबके साथ रही है; फिर तेरे ऊपर कष्ट पडत्रने पर किसको दुःख न होगा ? निश्चय ही, कोई अन्य व्यक्ति किसी दूसरे के हृदय को कभी पूर्णरूप से नहीं समझ सकता, यही कारण है कि तुम मुझे नहीं समझ पाती; मेरे कष्ट का अनुभव नहीं कर पातीं।। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! तदनन्तर उन कन्याओं के साथ ही द्रौपदी राजभवन में गयी और रानी सुदेष्णा के पास जाकर खड़ी हो गयी। तब राजपुत्री सुदेष्णा ने विराट कथनानुसार उससे कहा- ‘सैरन्ध्री ! तुम जहाँ जाना चाहो, शीघ्र चली जाओ।‘भद्रे ! तुम्हारे गन्धर्वों द्वारा प्राप्त होने वाले पराभाव से महाराज को भय हो रहा है। सुभ्रु ! तुम अभी तरुणी हो, रूपसौन्दर्य में भी तुम्हारी समानता कर सके, ऐसी कोई स्त्री इस भूमण्डल में नहीं है। पुरुषों को विषयभोग प्रिय होता ही है; (अतः उनसे प्रमाद होने की सम्भावना है।) इधर तुम्हारे गन्धर्व बड़े क्रोधी हैं ( वे न जाने कब क्या कर बैठें ?)’ । सैरन्ध्री ने कहा- भामिनी ! मेरे लिये तेरह दिन और महाराज क्षमा करें। निःसंदेह तब तक गन्धर्वों का अभीष्ट कार्य पूर्ण हो जायगा- वे कृतकृत्य हो जायँगे। इसके बाद वे मुझे तो ले ही जायेंगे, आपका भी प्रिय करेंगे। (गन्धर्वों की प्रसन्नता) अवश्य ही राजा विराट अपने भाई-बन्धुओं सहित कल्याण के भागी होंगे। शुभे ! राजा विराट ने गन्धर्वों का बड़ा उपकार किया है; अतः वे सदा उनके प्रति कृतज्ञ बने रहते हैं। गन्धर्वलोग बल के अभिमानी होते हुए भी साधु स्वभाव के पुरुष हैं और अपने प्रति किये हुए उपकार का बदला चुकाने की इच्छा रखते हैं। मैं ऐ प्रयोजन से यहाँ रहती हूँ; इसीलिये तुमसे अभी कुछ दिन और यहाँ ठहरने देने के लिये अनुरोध करती हूँ। तुम अपने मन में जो कुछ भी सोच-विचारकर करो, किंतु कुछ गिने गिनाये दिनों तक अभी और मेरा भरण-पोषण करती चलो; इससे तुम्हारा कल्याण होगा।। वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! सैरन्ध्री की यह बात सुनकर केकयराजकुमारी सुदेष्णा भाई के शोक से पीडि़त और दुःख से मोहित हो आर्त होकर द्रौपदी से बोली- ‘भद्रे ! तुम्हारी जब तक इच्छा हो, यहाँ रहो; परंतु मेरे पति और पुत्रों की विशेषरूप से रक्षा करो। इसके लिये मैं तुम्हारी शरण में आयी हूँ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत कीचकवधपर्व में कीचकों के दाह संसकार विषयक चैबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ। (दक्षिणात्य अधिक पाठ के 4 श्लोक मिलाकर कुल 34 श्लोक हैं)
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