महाभारत विराट पर्व अध्याय 28 श्लोक 1-17
अष्टाविंश (28) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)
युधिष्ठिर की महिमा कहते हुए भीष्म की पाण्डवों के अन्वेषण के विषय में सम्मति
वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! इसके पश्चात् भरतवंशियों के पितामह, देशकाल के ज्ञाता, वेद-शास्त्रों के विद्वान्, तत्त्वज्ञानी और सम्पूर्ण धर्मों को जानने वाले शान्तनुनन्दन भीष्मजी ने आचार्य द्रोण कीबात पूरी होने पर कौरवों के हित के लिये आचार्य से मेल खाती हुई यह बात कौरवों से कही। उनकी वह बात धर्मज्ञ युधिष्ठिर से सम्बन्ध रखने वाली तथा धर्म से युक्त थी। वह दुष्ट पुरुषों के लिये सदा दुर्लभ और सत्पुरुषों को सदैव प्रिय लगनेवाली थी। इस प्रकार भीष्मजी ने वहाँ सत्पुरुषों द्वारा प्रशंसित सम्यक् वचन कहा- ‘सब विषयों के तत्त्वज्ञ तथा विप्रवर आचार्य द्रोण ने जैसा कहा है, वह ठीक है। वास्तव में पाण्डव समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न, साधु-पुरुषोचित नियमों एवं व्रत के पालन में त्त्पर, वेदोक्त व्रत के पालक, नाना प्रकार की श्रुतियों के ज्ञाता, बड़े-बूढ़ों के उपदेश और आदेश के पालन में संलग्न, सत्यव्रतपरायण तथा शुद्ध व्रत धारण करने वाले हैं। वे अज्ञातवास के नियत समय को जानते हैं, इसीलिये उसका पालन कर रहे हैं। ‘पाण्डव क्षत्रिय धर्म में नित्य अनुरक्त रहकर सदा भगवान् श्रीकृष्ण अनुगमन करने वाले हैं। वे उत्तम वीर पुरुष, महातमा, महाबलवान् तथा साधु पुरुषों के लिये उचित कर्तव्य का भार वहन कर रहे हैं; अतः वे कष्ट भोगने यसा नष्ट होने योग्य नहीं हैं। ‘पाण्डव अपने धर्म तथा उत्तम पराक्रम से सुरक्षित हैं। अतः वे नष्ट नहीं हो सकते, यह मेरा निश्चित विचार है। ‘भरतनन्दन ! पाण्डवों के विषय में मेरी बुद्धि का जो निश्चय है, उसे बताता हूँ। जो उत्तम नीति से सम्पन्न हैं, उसकी उस नीति का अनुसंधान दूसरे (अनीतिपरायण) मनुष्य नहीं कर सकते। ‘पाण्डवों के सम्बन्ध में अपनी बुद्धि से भलीभाँति सोच-विचारकर मुझे जो युक्तिसंगत जान पडत्रा है, वही उपाय हम यहाँ कर सकते हैं। मैं उस द्रोह के कारण नहीं, तुम्हारे भले के लिये बताता हूँ; ध्यान देकर सुनो। ‘युधिष्ठिर की जो नीति है, उसकी मेरे जैसे पुरुषों को कभी निन्दा नहीं करनी चाहिये। उसे अच्छी नीति ही कहनी चाहिये? अनीति कहना किसी प्रकार ठीक नहीं है। ‘तात ! जो वृद्ध पुरुषों के अनुशासन में रहने वाला और सत्यपालक है, वह वीर पुरुष यदि यसाधु पुरुषों के समाज में कुछ कहना चाहता है, तो उसे यहाँ सर्वथा धर्म प्राप्त करने की इच्छा से यथार्थ एवं उचित बात ही करनी चाहिये। ‘अतः इस तेरहवें वर्ष में धर्मराज युधिष्ठिर के निवास के सम्बन्ध में दूसरे लोग जैसी धारणा रखते हैं, वैसा मैं नहीं मानता। ‘तात ! जिस नगर या राष्ट्र में राजा युधिष्ठिर निवास करते होंगे, वहाँ के राजाओं का अकल्याण नहीं हो सकता। जहाँ राजा युधिष्ठिर होंगे, उस जनपद के लोगों को दानशील, उदार, विनयी और लज्जाशील होना चाहिये। ‘जहाँ राजा युधिष्ठिर होंगे, वहाँ के मनुष्य सदा प्रिय वचन बोलने वाले, जितेन्द्रिय, कल्याणभागी, सत्यपरायण, हृष्टपुष्ट, पवित्र और कार्यकुशल होंगे। ‘वहाँ कोई न तो दूसरे के दोष देखने वाला होगा और न ईष्र्यालु। न किसी में अभिमान होगा और न मात्स्र्य (द्वेष)। वहाँ के सब लोग स्वयं ही धर्म में तत्पर होंगे।
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