महाभारत विराट पर्व अध्याय 29 भाग 1
एकोनत्रिंश (29) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)
कृपाचार्य की सम्मति और दुर्योधन का निश्चय
वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! इसके पश्चात् महर्षि शरद्वान् के पुत्र कृपाचार्य ने उस समय यह बात कही- ‘राजन् ! वयोवृद्ध भीष्मजी ने पाण्डवों के विषय में जो कुछ कहा है, वह युक्तियुक्त तो है ही, अवसर के अनुकूल भी है। ‘उसमें धर्म और अर्थ दोनों ही संनिहित हैं। वह सुन्दर, तात्त्विक और सकारण है। इस विषय में मेरा भी जो कथन है, वह भीष्मजी के ही अनुरूप है, उसे सुनो। ‘तुम लोग गुप्तचरों से पाण्डवों की गति और स्थिति का पता लगवाओ और उसी नीति का आश्रय लो, जो इस समय हितकारिणी हो। ‘तात ! जिसे सम्राट बनने की इच्छा हो, उसे साधारण शत्रु की भी अवहेलना नहीं करनी चाहिये। फिर जो युद्ध में सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्र के संचालन में कुशल हैं, उन पाण्डवों की तो बात ही क्या है ? अतः इस समय जब कि महात्मा पाण्डव छद्मवेष धारण करके (अर्थात् वेष बदलकर) गुप्तरूप से छिपे हुए हैं और अज्ञातवास की जो नियत अवधि थी, वह प्रायः समाप्त हो चली है, स्वराष्ट्र और परराष्ट्र में अपनी कितनी शक्ति है- इसे समझ लेना चाहिये। इसमें संदेह नहीं कि उपयुक्त समय आते ही पाण्डव प्रकट हो जायँगे। अज्ञातवास का समय पूर्ण कर लेने पर कुन्ती के वे महाबली, अमितपराक्रमी और महात्मा पुत्र पाण्डव महान् उत्साह से सम्पन्न हो जायेंगे। ‘अतः इस समय तुम्हें अपनी सेना, कोष और नीति ऐसी बनायी रखनी चाहिये, जिससे समय आने पर हम उनके साथ यथावत् सन्धि (मेल अथवा बाण-संधान) कर सकें। ‘तात ! तुम स्वयं बुद्धि से भी विचारकर अपनी सम्पूर्ण शक्ति कितनी है, इसकी जानकारी प्राप्त कर लो। तुम्हारे बलवान् और निर्मल सब प्रकार के मित्रों में निश्चित् बल कितना है, यह भी जान लेना चाहिये। ‘भारेत ! उत्तम, मध्यम और अधम तीनों प्रकार की सेनाएँ प्रसन्न हैं या अप्रसन्न- इसे जान लो; तब हम शत्रुओं से सन्धि (मेल या बाण-संधान)कर सकते हैं। ‘साम (समझाना), दान(धन आदि देना), भेद (शत्रुओं में फूट डालना), दण्ड देना और कर लेना- इन नीतियों के द्वारा शत्रु पर आक्रमण करके, दुर्बलों को बल से दबाकर, मित्रों को मेल-जोल से अपनाकर और सेना को मिष्ट-भाषण एवं वेतन आदि देकर अपने अनुकूल कर लेना चाहिये। इस प्रकार उत्तम कोष और सेना को बढ़ा लेने पर तुम अच्छी सफलता प्राप्त कर सकोगे। ‘उस दिशा में बलवान् से बलवान् शत्रु क्यों न आ जायँ और वे पाण्डव हों या देसरे कोई, यदि सेना और वाहन आदि की दृष्टि से उनमें अपनी अपेक्षा न्यूनता है तो तुम उन सबके साथ युद्ध कर सकोगे। ‘नरेन्द्र ! इस प्रकार अपने धर्म के अनुकूल सम्पूर्ण कर्तव्य का निश्चय करके यथासमय उसका पालन करोगे, तो दीर्धकाल तक उसकासुख भोगोगे’। वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर दुर्योधन उन महात्माओं का वचन सुनकर दो घड़ी तक कुद विचार करता रहा। फिर मन्त्रियों से इस प्रकार बोला। दुर्योधन ने कहा- मन्त्रियों ! मैंने पूर्वकाल में जन-साधारण की बैइक में आपस की बातचीत के समय शास्त्रों के विद्वान, ज्ञानी, वीर एवं पुण्यात्मा पुरुषों के निश्चित सिद्धान्त के विषय में कुछ ऐसी बातें सुनीं हैं, जिनसे नीति की दृष्टि के अनुसार मैं मनुष्यों के बलाबल की जानकारी रखता हूँ।
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