महाभारत विराट पर्व अध्याय 4 श्लोक 1-16
चतुर्थ (4) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)
धौम्य का पाण्डवों को राजा के यहाँ रहने का ढंग बताना और सबका अपने अपने अभीष्ट स्थानों को जाना
युधिष्ठिर बोले- विराट के यहाँ रहकरतुम्हें जो-जो कार्य करने हैं, वे सब तुमने बताये। मुझे भी अपनी बुद्धि के अनुसार जो कार्य उचित प्रतीत हुआ, वह कह चुका। जान पड़ता है कि विधाता का यही निश्चय है। अब मेरी सलाह यह है कि ये पुरोहित धौम्यजी रसोइयों तथा पाकशालाध्यक्ष के साथ राजा द्रुपद के घर जाकर रहें और वहाँ हमारे अग्निहोत्र की अग्नियों की रक्षा करें तथा ये इन्द्रसेन आदि सेवकगण केवल रथों को लेकर शीघ्र यहाँ से द्वारका चले जायँ। और ये जो द्रौपदी की सेवा करने वाली स्त्रियाँ हैं, वे सब रसोइयों और पाकशालाध्यक्ष के साथ पान्चालदेश को ही चली जायँ। वहाँ सब लोग यही कहें- ‘हमें पाण्डवों का कुछ भी पता नहीं है। वे सब द्वैतवन से ही हमें छोड़कर न जाने कहाँ चले गये’। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! इस प्रकार आपस में एक दूसरे की सलाह लेकर और अपने पृथक्-पृथक् कर्म बतलाकर पाण्डवों ने पुरोहित धौम्य की भी सम्मति ली। तब पुरोहित धौम्य ने उन्हें इस प्रकार सलाह दी। धौम्यजी बोले- पाण्डवों ! ब्राह्मणों, सुहृदों, सवारी या युद्ध-यात्रा, आयुध या युद्ध तथा अग्नियों के प्रति जो शास्त्रविहित कर्तव्य हैं, उन्हें तुम अच्छी तरह जानते हो और तद्नुकूल तुमने जो व्यवस्था की है, वह सग ठीक है। भारत ! अब मैं तुमसे यह कहना चाहता हूँ कि तुम और अर्जुन सावधान रहकर सदा द्रौपदी की रक्षा करना। लोकव्यवहार की सभी बातें अािवा साधारण लोगों के व्यवहार तुम सब लोगों को विदित हैं। विदित होने पर हितैषी सुहृदों का कर्तव्य है कि वे स्नेहवश हित की बात बतावें। यही सनातन धर्म है और इसी से काम एवं अर्थ की प्राप्ति होती है। इसलिये मैं भी जो युक्तियुक्त बातें बताऊँगा, उन्हें यहाँ ध्यान देकर सुनो। राजपुत्रों ! मैं यह बता रहा हूँ कि राजा के घर में रहकर कैसा बर्ताव करना चाहिये ? उसके अनुसार राजकुल में रहते हुए भी तुम लोग वहाँ के सब दोषों से पार हो जाओगे। कुरुनन्दन ! विवेकी पुरुष के लिये भी राजमहल में निवास करना अत्यन्त कठिन है। वहाँ तुम्हारा अपमान हो या सम्मान, सब कुछ सहकर एक वर्ष तक अज्ञातभाव से रहना चाहिये। तदनन्तर चैदहवें वर्ष में तुम लोग अपनी इचछा के अनुसार सुखपूर्वक विचरण कर सकोगे। राजा से मिलना हो, तो पहले द्वारपाल से मिलकर राजा को सूचना देनी चाहिये और मिलने के लिये उनकी आज्ञा मँगा लेनी चाहिये। इन राजाओं पर पूर्ण विश्वास कभी न करें। आने लिये वही आसन पसंद करें, जिसपर दूसरा कोई बैठने वाला न हो। जो ‘में राजा का प्रिय व्यक्ति हूँ-, यों मानकर कभी राजा की सवारी, पलंग, पादुका, हाथी एवं रथ आदि पर नहीं चढ़ता है, वही राजा के घर में कुशल पूर्वक रह सकता है। जिन-जिन स्थानों पर बैठने से दुराचारी मनुष्य संदेह करते हों, वहाँ-वहाँ जो कभी नहीं बैठता, वह राजभवन में रह सकता है। बिना पूछे राजा को कभी कर्तव्य का उपदेश न दें। मौनभाव से ही उसकी सेवा करें और उपयुक्त अवसर पर राजा की प्रशंसा भी करें।
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