महाभारत विराट पर्व अध्याय 7 श्लोक 16-18
सप्तम (7) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)
(फिर वे युधिष्ठिर से बोले-) कंक ! आज से आप मेरे सखा हैं। जैसी सवारी में मैं चलता हूँ, वैसी ही आपको भी मिलेगी। पहनने के लिये वस्त्र और भोजन-पान आदि का प्रबन्ध भी आपके लिये पर्याप्त मात्रा में रहेगा। बाहर के राज्य-कोश, उद्यान और सेना आदि तथा भीतर के धन-दारा आदि की भी देख-भाल आप ही करें। मेरे आदेश से आपके लिये राजमहल का द्वार सदा खुला रहेगा। आपसे कोई परदा नहीं रक्खा जायेगा। जो लोग जीविका के अभाव में कष्ट पा रहे हों और अनुवाद के लिये अर्थात् पहले के स्थायी तौर पर दिये हुए खेत और बगीचे आदि पुनः उपयोग में लाने के निमित्त नूतन राजाज्ञा प्रापत करने के लिये आपके पास आवें, उनके अनुरोध-पूर्ण वचन से आप सदा उनकी प्रार्थना मुझे सुना सकते हैं। विश्वास रखिये, आपके कथनानुसार उन याचकों को में सब कुछ दूँगा; इसमें संशय नहीं है। आपको मेरे पास आने या कुछ कहने में भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है।
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! इस प्रकार वहाँ राजा युधिष्ठिर तथा मत्स्यनरेश की प्रथम भेंट हुई। जैसे भगवान् विष्णु का वज्रधारी इन्द्र से मिलन हुआ हो, उसी प्रकार विराटनरेश राजा युधिष्ठिर के साथ समागम हुआ।। युधिष्ठिर के स्वरूप का दर्शन विराटराज को बहुत प्रिय लगा। जब वे आसन पर बैठ गये, तब राजा विराट उन्हें एकटक निहारने लगे। उनके दर्शन से वे तृप्त ही नहीं होते थे। जैसे इन्द्र अपनी कान्ति से स्वर्ग की शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार राजा युधिष्ठिर उस सभा को प्रकाशित कर रहे थे। धीर स्वभाव वाले नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर उस समय राजा विराट के साथ इस प्रकार अच्छे ढंग से मिलकर और उनके द्वारा परम आदर-सत्कार पाकर वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे। उनका वह चरित्र किसी को भी मालूम नहीं हुआ।
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