महाभारत शल्य पर्व अध्याय 24 श्लोक 1-22

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चतुविंश (24) अध्याय: शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: चतुविंश अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण के सम्मुख अर्जुन द्वारा दुर्योधन के दुराग्रह की निंदा और रथियों की सेना का संहार

संजय कहते हैं- राजन् ! जब पाण्डव-योद्धाओं ने अधिकांश सेना का संहार का डाला और युद्ध का कोलाहल कम हो गया, तब सुबलपुत्र शकुनि शेष बचे हुए सात सौ घुड़सवारों के साथ कौरव सेना के समीप चला गया । वह तुरन्त कौरव सेना में पहुँचकर सब को युद्ध के लिये शीघ्रता करने की प्रेरणा देता हुआ बोला-शत्रुओं का दमन करनेवाले वीरों ! तुम हर्ष और उत्साह के साथ युद्ध करो ! ऐसा कहकर उसने वहाँ बारम्बार क्षत्रियों से पूछा-महाबली राजा दुर्योधन कहाँ है ? । भरतश्रेष्ठ ! शकुनि की वह बात सुनकर उन क्षत्रियों ने उसे यह उत्तर दिया-प्रभो ! महाबली कुरूराज रणक्षेत्र के मध्यभाग में वहाँ खडे़ हैं, जहाँ यह पूर्ण चन्द्रमा के समान कांतिमान् विशाल छत्र तना हुआ है तथा जहाँ वे शरीर-रक्षक आवरणों एवं कवचों से सुसज्ज्ति रथ खड़े हैं । राजन् ! जहाँ यह मेंघों की गम्भीर गर्जना के समान भयानक शब्द गूँज रहा है, वहीं शीघ्रतापूर्वक चले जाइये, वहाँ आप कुरूराज का दर्शन कर सकेंगे । नरेश्वर ! तब उन योद्धाओं के ऐसा कहने पर सुबलपुत्र शकुनि वहीं गया, जहाँ आपका पुत्र दुर्योधन समरांगण में विचित्र युद्ध करनेवाले वीरोंद्वारा सब ओर से घिरा हुआ खड़ा था । प्रजानाथ ! तदनन्तर दुर्योधन को रथसेना में खड़ा देख आपके सम्पूर्ण रथियों का हर्ष बढ़ाता हुआ शकुनि अपने को कृतार्थ सा मानकर बड़े हर्ष के साथ राजा दुर्योधन से इस प्रकार बोला-।। राजन् ! शत्रु की रथसेना का नाश कीजिये। समस्त घुड़सवारों को मेंने जीत लिया है। राजा युधिष्ठिर अपने प्राणों का परित्याग किये बिना जीते नहीं जा सकते । पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के द्वारा सुरक्षित इस रथ-सेना का संहार हो जाने पर हम इन हाथीसवारों, पैदलों और घुड़सवारों का भी वध कर डालेंगे । विजयाभिलाषी शकुनि की यह बात सुनकर आपके सैनिक अत्यन्त प्रसन्न हो बडे़ वेग से पाण्डव-सेना पर टूट पडे़।। सबके तरकसों के मुँह खुल गये, सब ने हाथ में धनुष ले लिये और सभी धनुष हिलाते हुए जोर-जोर से सिंहनाद करने लगे । प्रजानाथ ! तदनन्तर फिर प्रत्यंचा की टंकार और अच्छी तरह छोडे़ हुए बाणों की भयानक सनसनाहट प्रकट होने लगी।। उन सबको बड़े वेग से धनुष उठाये पास आया देखकर कुन्तीकुमार अर्जुन ने देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा- । जनार्दन ! आप स्वस्थचित्त होकर इन घोड़ों को हाँकिये और इस सैन्यसागर में प्रेवश कीजिये। आज में तीखें बाणों से शत्रुओं का अन्त कर डालूँगा। परस्पर भिड़कर इस महान् संग्राम के आरम्भ हुए आज अठारह दिन हो गये । इन महामनस्वी कौरवों के पास अपार सेना थी; परन्तु युद्ध में इस समय तक प्रायः नष्ट हो गयी। देखिये, प्रारब्ध का कैसा खेल है ? । माधव ! अच्युत ! दुर्योधन की समुद्र जैसी अनन्त सेना हमलोगों से टक्कर लेकर आज गाय की खुरी के समान हो गयी है । माधव ! यदि भीष्म के मारे जाने पर दुर्योधन संधि कर लेता तो यहाँ सबका कल्याण होता; परन्तु उस अज्ञानी मूर्ख ने वैसा नहीं किया । मधुकुलभूषण ! भीष्मजी ने जो सच्ची और हितकर बात बतायी थी, उसे भी उस बुद्धिहीन दुर्योधन ने नहीं माना।। तदनन्तर घमासान युद्ध प्रारम्भ हुआ और उसमें भीष्मजी पृथ्वी पर मार गिराये गये। फिर भी न जोन क्या कारण था, जिससे युद्ध चालू ही रह गया ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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