महाभारत शल्य पर्व अध्याय 29 श्लोक 96-105

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एकोनत्रिंश (29) अध्याय: शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 96-105 का हिन्दी अनुवाद

वेश्या पुत्र युयुत्सु की कहीं हुई यह बात सुन कर और इसे समयोचित जान कर सम्पूर्ण धर्मो के ज्ञाता तथा अमेय आत्म बल से सम्पन्न विदुरजी ने युयुत्सु की भूरी-भूरी प्रशंसा की एवं इस प्रकार कहा-‘ भरतवंशियों के इस विनाश के समय जो यह समयोचित कर्तव्य प्राप्त था, वह सब बताकर अपनी दयालुता के कारण तुमने कुल-धर्म की रक्षा की है । ‘वीरों का विनाश करने वाले इस संग्राम से बच कर तुम कुशलपूर्वक नगर में लौट आये-इस अवस्थाओं में हमने तुम्हें उसी प्रकार देखा है, जैसे रात्रि के अन्त में प्रजा भगवान भास्कर का दर्शन करती है । ‘लोभी, अदूरदर्शी और अन्धे राजा के लिये तुम लाठी के सहारे हो। मैंने उनसे युद्ध रोकने के लिये बारंबार याचना की थी, परंतु दैव से उनकी बुद्धि मारी गयी थी; इसलिये उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी। आज वे संकट से पीडि़त हैं, बेटा ! इस अवस्था में एकमात्र तुम्हीं उन्हें सहारा देने के लिये जीवित हो । ‘आज यहीं विश्राम करो। कल सबेरे युधिष्ठिर के पास चले जाना’ ऐसा कहकर नेत्रों में आंसू भरे विदुरजी ने युयुत्सु को साथ लेकर राजमहल में प्रवेश किया। वह भवन नगर और जनपद के लोगों द्वारा दुःख पूर्वक किये जाने वाले हाहाकार एवं भयंकर आर्तनाद से गूंज उठा था । वहां न तो आनन्द था और न वैभवजनित शोभा ही दृष्टिगोचर होती थी। वह राजभवन उस जलाशय के समान जनशून्य और विध्वस्त सा जान पड़ता था, जिसके तट का उद्यान नष्ट हो गया हो। वहां पहुंच कर विदुरजी दुःख से अत्यन्त खिन्न हो गये । राजन् ! सम्पूर्ण धर्मो के ज्ञाता विदुरजी ने व्याकुल अन्तः- करण से नगर में प्रवेश किया और धीरे-धीरे वे लंबी सांस खींचने लगे । युयुत्सु भी उस रात में अपने घर पर ही रहे। उनके मन में अत्यन्न दुःख था, इसलिये वे स्वजनों द्वारा वन्दित होने पर भी प्रसन्न नहीं हुए। इस पारस्परिक युद्ध से भरतवंशियों का जो घोर संहार हुआ था, उसी की चिन्ता में वे निमग्न हो गये थे ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत ह्रद प्रवेश पर्व में उन्तीसवां अध्याय पूरा हुआ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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