महाभारत शल्य पर्व अध्याय 31 श्लोक 38-54

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एकत्रिंश (31) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 38-54 का हिन्दी अनुवाद

दुर्योधन बोला-महाराज ! किसी भी प्राणी के मन में भय समा जाय, यह आश्चर्य की बात नहीं है; परंतु भरतनन्दन ! मैं प्राणों के भय से भाग कर यहां नहीं आया हूं । मेरे पास न तो रथ है और न तरकस। मेरे पाश्र्व रक्षक भी मारे जा चुके हैं। मेरी सेना नष्ट हो गयी और मैं युद्ध स्थल में अकेला रह गया था; इस दशा में मुझे कुछ देर तक विश्राम करने की इच्छा हुई । प्रजानाथ ! मैं न तो प्राणों की रक्षा के लिये, न किसी भय से और न विषाद के ही कारण इस जल में आ घुसा हूं। केवल थक जाने के कारण मैंने ऐसा किया है । कुन्तीकुमार ! तुम भी कुछ देर तक विश्राम कर लो। तुम्हारे अनुगामी सेवक भी सुस्ता लें। फिर मैं उठ कर समरागंण में तुम सब लोगों के साथ युद्ध करूंगा । युधिष्ठिर ने कहा-सुयोधन ! हम सब लोग तो सुस्ता ही सुके हैं और बहुत देर से तुम्हें खोज रहे हैं; इसलिये अब तुम उठो और यहीं युद्ध करो । संग्राम में समस्त पाण्डवों को मार कर समद्धिशाली राज्य प्राप्त करो अथवा रणभूमि में हमारे हाथों मारे जाकर वीरों को मिलने योग्य पुण्य लोकों में चले जाओ । दुर्योधन बोला-कुरुनन्दन नरेश्वर ! मैं जिनके लिये कौरवों का राज्य चाहता था, वे मेरे सभी भाई मारे जा चुके हैं। भूमण्डल के सभी क्षत्रिय शिरोमणियों का संहार हो गया है। यहां के सभी रत्न नष्ट हो गये हैं; अतः विधवा स्त्री के समान श्री हीन हुई इस पृथ्वी का उपभोग करने के लिये मेरे मन में तनिक भी उत्साह नहीं है । भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर ! मैं आज भी पान्चालों और पाण्डवों का उत्साह भंग करके तुम्हें जीतने का हौसला रखता हूं ।। किंतु जब द्रोण और कर्ण शान्त हो गये तथा पितामह भीष्म मार डाले गये तो अब मेरी राय में कभी भी इस युद्ध की कोई आवश्यकता नहीं रही । राजन् ! अब यह सूनी पृथ्वी तुम्हारी ही रहे। कौन राजा सहायकों से रहित होकर राज्य शासन की इच्छा करेगा ? वैसे हितैषी सुहृदों, पुत्रों, भाइयों और पिताओं को छोड़ कर तुम लोगों के द्वारा राज्य का अपहरण को जाने पर कौन मेरे जैसा पुरुष जीवित रहेगा ? भरतनन्दन ! मैं मृगचर्म धारण करके वन में चला जाऊंगा। अपने पक्ष के लोगों के मारे जाने से अब इस राज्य में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है । राजन् ! यह पृथ्वी, जहां मेरे अधिक से अधिक भाई बन्धु, घोड़े और हाथी मारे गये हैं, अब तुम्हारे ही अधिकार में रहे। तुम निश्चिन्त होकर इसका अपभोग करो । प्रभो ! मैं तो दो मृग छाला धारण करके वन में ही चला जाऊंगा, जब मेरे स्वजन ही नहीं रहे, तब मुझे भी इस जीवन को सुरक्षित रखने की इच्छा नहीं है । राजेन्द्र ! जाओ, जिसके स्वामी का नाश हो गया है, योद्धा मारे गये हैं और सारे रत्न नष्ट हो गये हैं, उस पृथ्वी का आनन्दपूर्वक उपभोग करो; क्योंकि तुम्हारी जीविका क्षीण हो गयी थी । संजय कहते हैं-राजन् ! महायशस्वी युधिष्ठिर ने वह करुणायुक्त वचन सुन कर पानी में स्थित हुए आपके पुत्र दुर्योधन से इस प्रकार कहा ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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