महाभारत शल्य पर्व अध्याय 32 श्लोक 37-55
द्वात्रिंश (32) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)
वह पराक्रमी वीर बड़े वेग से सोने के अंगद से विभूषित एवं लोहे की बनी हुई भारी गदा हाथ में लेकर पानी को चीरता हुआ उसके भीतर से उठ खड़ा हुआ और सर्पराज के समान लंबी सांस खींचने लगा । कंधे पर लोहे की गदा रखकर बंधे हुए जल का भेदन करके आपका वह पुत्र प्रतापी सूर्य के समान ऊपर उठा । इसके बाद महाबली बुद्धिमान दुर्योधन ने लोहे की बनी हुई वह सुवर्णभूषित भारी गदा हाथ में ली । हाथ में गदा लिये हुए दुर्योधन को पाण्डवों ने इस प्रकार देखा, मानो कोई श्रृंग युक्त पर्वत हो अथवा प्रजा पर कुपित होकर हाथ में त्रिशूल लिये हुए रुद्रदेव खड़े हों । वह गदाधारी भरतवंशी वीर तपते हुए सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा था। शत्रुओं का दमन करने वाले महाबाहु दुर्योधन को हाथ मे गदा लिये जल से निकला हुआ देख समस्त प्राणी ऐसा मानने लगे, मानो दण्डधारी यमराज प्रकट हो गये हों । नरेश्वर ! सम्पूर्ण पान्चालों ने आपके पुत्र को वज्रधारी इन्द्र और त्रिशूलधारी रुद्र के समान देखा । उसे जल से बाहर निकला देख समस्त पान्चाल और पाण्डव हर्ष से खिल उठे और एक-दूसरे से हाथ मिलाने लगे । महाराज ! उनके इस हाथ मिलाने को दुर्योधन ने अपना उपहास समझा; अतः क्रोधपूर्वक आंखें घुमा कर पाण्डवों की ओर इस प्रकार देखा, मानो उन्हें जला कर भस्म कर देना चाहता हो । उसने अपनी भौहों को तीन जगह से टेढ़ी करके दांतों से ओठ को दबाया और श्रीकृष्ण सहित पाण्डवों से इस प्रकार कहा । दुर्योधन बोला-पान्चालो और पाण्डवो ! इस उपहास का फल तुम्हें अभी भोगना पड़ेगा; मेरे हाथ से मारे जाकर तुम तत्काल यमलोक में पहुंच जाओगे । संजय कहते हैं-राजन् ! आप का पुत्र दुर्योधन उस जल से निकल कर हाथ में गदा लिये खड़ा हो गया। वह रक्त से भीगा हुआ था । उस समय खून से लथपथ हुए दुर्योधन का शरीर पानी से भीग कर जल का स्त्रोत बहाने वाले पर्वत के समान प्रतीत होता था । वहां हाथ में गदा उठाये हुए वीर दुर्योधन को पाण्डवों ने क्रोध में भरे हुए यमराज तथा हाथ में त्रिशूल लेकर खड़े हुए रुद्र के समान समझा । उस पराक्रमी वीर ने हंकड़ते हुए सांड़ के समान मेघ के तुल्य गम्भीर गर्जना करते हुए बड़े हर्ष के साथ गदा युद्ध के लिये पाण्डवों का ललकारा । दुर्योधन बोला- युधिष्ठिर ! तुम लोग एक-एक करके मेरे साथ युद्ध के लिये आते जाओ। रणभूमि में किसी एक वीर को बहुसंख्यक वीरों के साथ युद्ध के लिये विवश करना न्याय संगत नहीं है । विशेषतः उस वीर को जिसने अपना कवच उतार दिया हो, जो थक कर जल में गोता लगा कर विश्राम कर रहा हो, जिसके सारे अंग अत्यन्त घायल हो गये हों तथा जिसके वाहन और सैनिक मार डाले गये हों, किसी समूह के साथ युद्ध के लिये बाध्य करना कदापि उचित नहीं है । मुझे तो तुम सब लोगों के साथ अवश्य युद्ध करना है; परंतु इसमें क्या उचित है और क्या अनुचित; इसे तुम सदा अच्छी तरह जानते हो । युधिष्ठिर ने कहा-सुयोधन ! जब तुम बहुत से महा रथियों ने मिल कर युद्ध में अभिमन्यु को मारा था, उस समय तुम्हारे मन में ऐसा विचार क्यों नहीं उत्पन्न हुआ ?
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