महाभारत शल्य पर्व अध्याय 48 श्लोक 21-41
अष्टचत्वारिंश (48) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)
पुरुषप्रवर ! उन फलों को पकाते हुए उसका बहुत समय व्यतीत हो गया, परंतु वे फल पक न सके। इतने में ही दिन समाप्त हो गया । उसने जो ईधन जमा कर रक्खे थे, वे सब आग में जल गये। तब अग्नि को ईधन रहित देख उसने अपने शरीर को जलाना आरम्भ किया । निष्पाप नरेश ! मनोहर दिखायी देने वाली उस कन्या ने पहले अपने दोनों पैर आग में डाल दिये। वे ज्यों-ज्यों जलने लगे, त्यों-ही-त्यों वह उन्हें आग के भीतर बढ़ाती गयी । उस साध्वी ने अपने जलते हुए चरणों की कुछ भी परवा नहीं की। वह महर्षि का प्रिय करने की इच्छा से दुष्कर कार्य कर रही थी । उसके मन में तनिक भी उदासी नहीं आयी। मुख की कान्ति में भी कोई अन्तर नहीं पड़ा। वह अपने शरीर को आग में जलाकर भी ऐसी प्रसन्न थी, मानो जल के भीतर खड़ी हो । भारत ! उसके मन में निरन्तर इसी बात का चिन्तन होता रहता था कि ‘इन बेर के फलों को हर तरह से पकाना है’। भरतनन्दन ! महर्षि के वचन को मन में रख कर वह शुभ लक्षणा कन्या उन बेरों को पकाती ही रही, परंतु वे पक न सके । भगवान अग्नि ने स्वयं ही उसके दोनों पैरों को जला दिया, तथापि उस समय उसके मन में थोड़ा सा भी दुःख नहीं हुआ । उसका यह कर्म देख कर त्रिभुवन के स्वामी इन्द्र बड़े प्रसन्न हुए। फिर उन्होंने उस कन्या को अपना यथार्थ रूप दिखाया । इसके बाद सुरश्रेष्ठ इन्द्र ने दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाली उस कन्या से इस प्रकार कहा-‘शुभे ! मैं तुम्हारी तपस्या, नियम पालन और भक्ति से बहुत संतुष्ट हूं। अतः कल्याणि ! तुम्हारे मन में जो अभीष्ट मनोरथ है, वह पूर्ण होगा। महाभागे ! तुम इस शरीर का परित्याग करके स्वर्ग लोक में मेरे पास रहोगी । ‘सुभ्रु ! तुम्हारा यह श्रेष्ठ तीर्थ इस जगत् में सुस्थिर होगा, बदरपाचन नाम से प्रसिद्ध होकर सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाला होगा । ‘यह तीनों लोकों में विख्यात है। बहुत से ब्रह्मर्षियों ने इस में स्नान किया है। पाप रहित महाभागे ! एक समय सप्तर्षिगण इस मंगलमय श्रेष्ठ तीर्थ में अरुन्धती को छोड़ कर हिमालय पर्वत पर गये थे । ‘वहां पहुंच कर कठोर व्रत का पालन करने वाले वे महाभाग महर्षि जीवन-निर्वाह के निमित्त फल-मूल लाने के लिये वन में गये । ‘जीविका की इच्छा से जब वे हिमालय के वन में निवास करते थे, उन्हीं दिनों बारह वर्षो तक इस देश में वर्षा ही नहीं हुई । ‘वे तपस्वी मुनि वहीं आश्रम बनाकर रहने लगे। उस समय कल्याणी अरुन्धती भी प्रतिदिन तपस्या में ही लगी रही ।। ‘अरुन्धती को कठोर नियम का आश्रय लेकर तपस्या करती देख त्रिनेत्रधारी वरदायक भगवान शंकर बड़े प्रसन्न हुए । ‘फिर वे महायशस्वी महादेवजी ब्राह्मण का रूप धारण करके उनके पास गये और बोले-‘शुभे ! मैं भिक्षा चाहता हूं’ । ‘तब परम सुन्दरी अरुन्धती ने उन ब्राह्मण देवता से कहा-‘विप्रवर ! अन्न का संग्रह तो समाप्त हो गया। अब यहां ये बेर हैं, इन्हीं को खाइये’। ‘तब महादेवजी ने कहा-‘सुव्रते ! इन बेरों को पका दो।’ उनके इस प्रकार आदेश देने पर यशस्विनी अरुन्धती ने ब्राह्मण का प्रिय करने की इच्छा से उन बेरों को प्रज्वलित अग्नि पर रखकर पकाना आरम्भ किया ।
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