महाभारत शल्य पर्व अध्याय 53 श्लोक 1-21

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त्रिपन्चाशत्तम (53) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: त्रिपन्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

ऋषियों द्वारा कुरुक्षेत्र की सीमा और महिमा का वर्णन

ऋषियों ने कहा-बलरामजी ! समन्तपन्चक क्षेत्र सनातन तीर्थ है। इसे प्रजापति की उत्तर वेदी कहते हैं। वहां प्राचीनकाल में महान् वरदायक देवताओं ने बहुत बड़े यज्ञ का अनुष्ठान किया था । पहले अमित तेजस्वी बुद्धिमान राजर्षिप्रवर महात्मा कुरु ने इस क्षेत्र को बहुत वर्षो तक जोता था, इसलिये इस जगत् में इसका नाम कुरुक्षेत्र प्रसिद्ध हो गया । बलरामजी ने पूछा-तपोधनो ! महात्मा कुरु ने इस क्षेत्र को किसलिये जोता था ? मैं आप लोगों के मुख से यह कथा सुनना चाहता हूं । ऋषि बोले-राम ! सुना जाता है कि पूर्वकाल में सदा प्रत्येक शुभ कार्य के लिये उद्यत रहने वाले कुरु जब इस क्षेत्र को जोत रहे थे, उस समय इन्द्र ने स्वर्ग से आकर इसका कारण पूछा । इन्द्र ने प्रश्न किया-राजन् ! यह महान् प्रयत्न के साथ क्या हो रहा है ? राजर्षे ! आप क्या चाहते हैं, जिसके कारण यह भूमि जोत रहे हैं ? कुरु ने कहा-शतक्रतो ! जो मनुष्य इस क्षेत्र में मरेंगे, वे पूण्यात्माओं के पाप रहित लोकों में जायंगे । तब इन्द्र उनका उपहास करके स्वर्गलोक में चले गये। राजर्षि कुरु उस कार्य से उदासीन न होकर वहां की भूमि जोतते ही रहे । शतक्रतु इन्द्र अपने कार्य से विरत न होने वाले कुरु के पास बारंबार आते और उन से पूछ-पूछ कर प्रत्येक बार उनकी हंसी उड़ाकर स्वर्गलोक में चले जाते थे । जब राजा कुरु कठोर तपस्या पूर्वक पृथ्वी को जोतते ही रह गये, तब इन्द्र ने देवताओं से राजर्षि कुरु की वह चेष्टा बतायी । यह सुनकर देवताओं ने सहस्त्र नेत्र धारी इन्द्र से कहा-‘शक्र ! यदि सम्भव हो तो राजर्षि कुरु को वर देकर अपने अनुकूल किया जाय । ‘यदि यहां मरे हुए मानव यज्ञों द्वारा हमारा पूजन किये बिना ही स्वर्गलोक में चले जायंगे, तब तो हम लोगों का भाग सर्वथा नष्ट हो जायगा’ । तब इन्द्र ने वहां से आकर राजर्षि कुरु से कहा-‘नरेश्वर ! आप व्यर्थ कष्ट क्यों उठाते हैं ? मेरी बात मान लीजिये। महामते ! राजेन्द्र ! जो मनुष्य और पशु-पक्षी यहां निराहार रह कर देह त्याग करेंगे अथवा युद्ध में मारे जायंगे, वे स्वर्गलोक के भागी होंगे’ । तब राजा कुरु ने इन्द्र से कहा-‘देवराज ! ऐसा ही हो’ तदनन्तर कुरु से विदा ले बलसूदन इन्द्र फिर शीघ्र ही प्रसन्न चित्त से स्वर्गलोक में चले गये । यदुश्रेष्ठ ! इस प्रकार प्राचीन काल में राजर्षि कुरु ने इस क्षेत्र को जोता और इन्द्र तथा ब्रह्मा आदि देवताओं ने इसे वर देकर अनुगृहीत किया । भूतल का कोई भी स्थान इससे बढ़कर पुण्यदायक नहीं होगा। जो मनुष्य यहां रहकर बड़ी भारी तपस्या करेंगे, वे सब लोग देहत्याग के पश्चात् ब्रह्मलोक में जायंगे । जो पुण्यात्मा मानव वहां दान देंगे, उनका वह दान शीघ्र ही सहस्त्रगुना हो जायगा । जो मानव शुभ की इच्छा रखकर यहां नित्य निवास करेंगे, उन्हें कभी यम का राज्य नहीं देखना पड़ेगा । जो नरेश्वर यहां बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान करेंगे, वे जब तक यह पृथ्वी रहेगी, तब तक स्वर्गलोक में निवास करेंगे । हलायुध ! स्वयं देवराज इन्द्र ने कुरुक्षेत्र के सम्बन्ध में यहां जो गाथा गायी है, उसे आप सुनिये ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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