महाभारत शल्य पर्व अध्याय 59 श्लोक 17-31

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एकोनषष्टितम (59) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: एकोनषष्टितम अध्याय: श्लोक 17-31का हिन्दी अनुवाद

भीम। ग्‍यारह अक्षौण्हिणी सेना के स्‍वामी तथा अपने ही बान्‍धव कुरूराज राजा दुर्योधन को पैर से न ठुकराओ । इसके भाई और मन्‍त्री मारे गये सेना नष्‍ट-भ्रष्‍ट हो गयी और यह स्‍वयं भी युद्ध में मारा गया ऐसी दशा में राजा दुर्योधन सर्वथा शोक के योग्‍य है उपहास का पात्र नहीं है । इसका सर्वथा विध्‍वंस हो गया इसके मन्‍त्री भाई और पुत्र भी मार डाले गये । अब इसे पिण्‍ड देने वाला भी कोई नहीं रह गया है। इसके सिवा यह हमारा ही भाई है। तुमने इसके साथ यह न्‍यायोचित बर्ताव नहीं किया है । तुम्‍हारे विषय में लोग पहले कहा करते थे कि भीमसेन बडे़ धर्मात्‍मा हैं। भीम। वही तुम आज राजा दुर्योधन को क्‍यों पैर से ठुकराते हो । भीमसेन से ऐसा कहकर राजा युधिष्ठिर दीनभाव से शत्रुदमन दुर्योधन के पास गये और अश्रुगद्रद कण्ठ से इस प्रकार बोले- । तात! तुम्हें खेद या क्रोध नहीं करना चाहिये। साथ ही अपने लिये शोक करना भी उचित नहीं है। निश्चय ही सब लोग अपने पहले के किये हुए अत्यन्त भयंकर कर्मों का ही परिणाम भोगते हैं । कुरूश्रेष्ठ! इस समय जो हम लोग तुम्हें और तुम हमें मार डालना चाहते थे, यह अवश्य ही विधाता का दिया हुआ हमारे ही अशुद्ध कर्मों का विषम फल है । भरतनन्दन ! तुमने लोभ, मद और अविवेक के कारण अपने ही अपराध से ऐसा भारी संकट प्राप्त किया है । तुम अपने मित्रों, भाइयों, पितृतुल्य पुरूर्षों, पुत्रों और पौत्रों का वध कराकर फिर स्वयं भी मारे गये । तुम्हारे अपराध से ही हम लोगों ने तुम्हारे भाइयों को मार गिराया और कुटुम्बीजनों का वध किया है, मैं इसे देवका दुर्लध्य विधान ही मानता हुं । अनघ ! तुम्हें अपने लिये शोक नहीं करना चाहिये, तुम्हारी प्रसंनीय मृत्यु हो रही है। कुरूराज! अब तो सभी अवस्थाओं में इस समय हम लोग ही शोचनीय हो गये हैं; क्योंकि उन प्रिय बन्धु-बान्धवों से रहित होकर हमें दीनतापूर्ण जीवन व्यतीत करना पडे़गा। भला, मैं भाइयों और पुत्रों की उन शोकविहला और दुःख में डूबी हुई विधवा बहुओं को कैसे देख सकूंगा । राजन ! तुम अकेले सुखी हो। निश्चय ही स्‍वर्ग में तुम्हें स्थान प्राप्त होगा और हमें यहां नरकतुल्य दारूण दुःख भोगना पड़ेगा । धृतराष्ट्र की वे शोकातुर एवं व्याकुल विधवा पुत्रवधुएं और पौत्रवधुएं भी निश्चय ही हम लोगों की निन्दा करेंगी । राजन ! ऐसा कहकर धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर अत्यन्त दुख से आतुर हो लंबी सांस छोड़ते हुए बहुत देर तक विलाप करते रहे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व के अन्तर्गत गदापर्व युधिष्ठिर का विलाप विषयक उनसठवां अध्याय पूरा हुआ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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