महाभारत शल्य पर्व अध्याय 63 श्लोक 41-58
त्रिषष्टितमअध्यायः (63) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)
भारत ! समस्त पाण्डव सदा से ही आपकी इच्छा है कि किसी तरह हमारे कुल का तथा क्षत्रिय समूह का विनाश न हो । धर्मवत्सल युधिष्ठिर ने अपने भाइयों के साथ नियत समय की प्रतीक्षा करते हुए सारा कष्ट चुपचाप सहन किया था। पाण्डव शुद्ध भाव से आपके पास आये थे तो भी उन्हें कपटपूर्वक जुएं में हराकर वनवास दिया गया । उन्होंने नाना प्रकार के वेशों में अपने को छिपाकर अज्ञातवास का कष्ट भोगा। इसके सिवा और भी बहुत-से क्लेश उन्हें असमर्थ पुरूषों के समान सदा सहन करने पड़े हैं । जब युद्ध का अवसर उपस्थित हुआ, उस समय मैंने स्वयं आकर शान्ति स्थापित करने के लिये सब लोगों के सामने आपसे केवल पांच गांव मांगे थे।परंतु काल से प्रेरित हो आपने लोभवश वे पांच गांव भी नहीं दिये। नरेश्वर ! आपके अपराध से समस्त क्षत्रियों का विनाश हो गया । भीष्म, सोमदत्त, बाह्नीक, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा और बुद्धिमान विदुर जी ने भी सदा आपसे शान्ति के लिये याचना की थी; परंतु आपने यह कार्य नहीं किया । भारत ! जिनका चित्त काल के प्रभाव से दूषित हो जाता है, वे सब लोग मोह में पड़ जाते हैं। जैसे कि पहले युद्ध की तैयारी के समय आपकी भी बुद्धि मोहित हो गयी थी। इसे कालयोग के सिवा और क्या कहा जा सकता है ? भाग्य ही सबसे बड़ा आश्रय है। महाप्राज्ञ ! आप पाण्डवों पर दोषारोपण न कीजियेगा। परंतप ! धर्म, न्याय और स्नेह की दृष्टि से महात्मा पाण्डवों का इसमें थोड़ा-सा भी अपराध नहीं है । यह सब अपने ही अपराधों का फल है, ऐसा जानकर आपको पाण्डवों के प्रति दोषदृष्टि नहीं करनी चाहिए । अब तो आपका कुल और वंश पाण्डवों से ही चलने वाला है। नाथ ! आपको और गान्धारी देवी को पिण्डा-पानी तथा पुत्र से प्राप्त होने वाला सारा फल पाण्डवों से ही मिलने वाला है। उन्हीं पर यह सब कुद अवलम्बित है । कुरूप्रवर ! पुरूषसिंह ! आप और यशस्वी गान्धारी देवी कभी पाण्डवों की बुराई करने की बात न सोचें । भरतश्रेष्ठ ! इन सब बातों तथा अपने अपराधों का चिन्तन करके आप पाण्डवों के प्रति कल्या-भावना रखते हुए उनकी रक्षा करें। आपको नमस्कार है । महाबाहो! भरतवंश के सिंह ! आप जानते हैं कि धर्मराज युधिष्ठिर के मन में आपके प्रति कितनी भक्ति और कितना स्वाभाविक स्नेह है । अपने अपराधी शत्रुओं का ही यह संहार करके वे दिन-रात शोक की आग में जलते हैं, कभी चैन नही पाते हैं । पुरूष सिंह ! आप और यशस्विनी गांधारी देवी के लिये निरन्तर शोक करते हुए नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर को शान्ति नहीं मिल रही है। आप पुत्र शोक से सर्वथा संतप्त है। आपकी बुद्धि और इन्द्रियां शोक से व्याकुल हैं। ऐसी दशा में वे अत्यन्त लज्जित होने के कारण आपके सामने नहीं आ रहे हैं । महाराज ! यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण राजा धृतराष्ट्र से ऐसा कहकर शोक से दुर्बल हुई गान्धारी देवी से यह उत्तम वचन बोले- ।
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