महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 100 श्लोक 1-15
शततम (100) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
- सैन्यसंचालन की रीति-नीति का वर्णन
युधिष्ठिर ने पूछा-भरतश्रेष्ठ पितामह ! विजयाभिलाषी राजा लोग जिस प्रकार धर्मं का थोड़ा-सा उल्लंघन करके भी अपनी सेनाओं को आगे ले जाते हैं, वह मुझे बताइये। भीष्म जी ने कहा-राजन्! किन्हीं का मत हैं कि धर्मं सत्य से ही स्थिर रहता हैं। दूसरे लोग युक्तिवाद से ही धर्मं की प्रतिष्ठा मानते हैं। किसी-किसी के मत में श्रेष्ठ आचरण से ही धर्मं की स्थिति हैं और कितने ही लोग यथासम्भव साम-दान आदि उपायों के अवलम्बन से भी धर्मं की प्रतिष्ठा स्वीकार करते हैं। युधिष्ठिर! अब मैं अर्थसिद्धि के साधनभूत धर्मों का वर्णन करूँगा। यदि डाकू और लुटेरे अर्थं और धर्मं की मर्यादा तोड़ने लगें, तब उनके विनाश के लिये वेदों में जो साधन बताया गया हैं, उसका वर्णन आरम्भ करता हूँ। तुम समस्त कार्यों की सिद्धि के लिये उन उपायों को मुझसे सुनो। ’भरतनन्दन ! बुद्धि दो प्रकार की होती है। एक सरल, दूसरी कुटिल। राजा को उन दोनों का ही ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। जहाँ तक सम्भव हों, जान-बूझकर कुटिल बुद्धि का सेवन न करे। यदि वैसी बुद्धि स्वतः आ जाय तो भी उसे हटाने का ही प्रयत्न करे। जो वास्तव में मित्र नहीं हैं, वे ही भीतर से राजा के अन्तरंग व्यक्तियों में फूट डालने का प्रयत्न करते हुए ऊपर से उसकी सेवा में लगे रहते हैं। राजा उनकी इस शठता को समझे और शत्रुओं की भाँति उनको भी मिटाने का प्रयत्न करे। कुन्तीनन्दन! राजा को चाहिये कि वह गाय, बैल तथा अजगर के चमड़ों से हाथियों की रक्षा के लिये कवच बनवावे। इसके सिवा लोहे की कीलें, लोहे, कवच, चँवर, चमकीले और पानीदार शस्त्र, पीले और लाल रंग के कवच, बहुरंगी ध्वजा-पताकाएँ, ऋष्टि, तोमर, खड्ग, तीखें फरसे, फलक और ढाल-इन्हें भारी संख्या में तैयार कराकर सदा अपने पास रखे। यदि शस्त्र तैयार हों और योद्धा भी शत्रुओं से भिड़ने का दृढ़ निश्चय कर चुके हों, तो चैत्र या मार्गशीर्षं मास की पूर्णिमा को सेना का युद्ध के लिये उद्यत होकर प्रस्थान करना उत्तम माना गया हैं। क्योंकि उस समय खेती पक जाती हैं और भूतल पर जल की प्रचुरता रहती है। भरतनन्दन ! उस समय मौसम भी न तो अधिक ठंडा रहता है और न अधिक गरम। इसीलिये उसी समय चढ़ाई करे अथवा जिस समय शत्रु संकट में हो, उसी अवसर पर उस पर आक्रमण कर दे। शत्रुओं को सेना द्वारा बाधा पहुँचाने के लिये ये ही अवसर अच्छे माने गये हैं। युद्ध के लिये यात्रा करते समय मार्गं समतल और सुगम हो तथा वहाँ जल और घास आदि सुलभ हों तो अच्छा समझा जाता है। वन में विचरने वाले कुशल गुप्तचरों को मार्ग के विषय में विशेष जानकारी रहा करती है। वन्य पशुओं की भाँति मनुष्य जंगल में आसानी से नहीं चल सकते; इसीलिये विजयाभिलाषी राजा सेनाओं में मार्गदर्शन कराने के लिये उन्हीं गुप्तचरों को नियुक्त करते हैं। सेना में सबसे आगे कुलीन एवं शक्तिशाली पैदल सिपाहियों को रखना चाहिये। शत्रु से बचाव के लिये सैनिकों के रहने का स्थान या किला ऐसा होना चाहिये, जहाँ पहुँचना कठिन हांे, जिसके चारों ओर जल से भरी हुई खाईं और ऊँचा परकोटा हो। साथ ही उसके चारों ओर खुला आकाश होना चाहिये।
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