महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 103 श्लोक 31-42

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त्रयधिकशततम (103) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रयधिकशततम अध्याय: श्लोक 31-42 का हिन्दी अनुवाद

जिन शत्रुओं के मन में संदेह उत्पन्न हो गया हो, उनके निकटवर्ती स्थानों में रहना या आना-जाना सदा के लिये त्याग दे। राजा उन पर कभी विश्वास न करे; क्योंकि इस जगत् में उसके द्वारा तिरस्कृत या क्षतिग्रस्त हुए शत्रुगण सदा बदला लेने के लिए सजग रहते हैं। देवेश्वर! सुरश्रेष्ठ! नाना प्रकार के व्यवहार चतुर लोगों के ऐश्वर्य पर शासन करना जितना कठिन काम है, उससे बढ़कर दुष्कर कर्म कोई नहीं है। वैसे भिन्न-भिन्न व्यवहार चतुर लोगों के ऐश्वर्य पर भी शासन करना तभी सम्भव बताया गया है, जब कि राजा मनोयोग का आश्रय ले सदा इसके लिये प्रयत्नशील रहे और कौन मित्र है तथा कौन शत्रु; इसका विचार करता रहे। मनुष्य कोमल स्वभाव वाले राजा का अपमान करते हैं और अत्यन्त कठोर स्वभाव वाले से भी उद्विग्न हो उठते हैं; अतः तुम न कठोर बनो, न कोमल भी हो जाओ। जैसे जल का प्रवाह बड़े वेग से बह रहा हो और सब ओर जल-ही जल फैल रहा हो, उस समय नदी तट के विदीर्ण होकर गिर जाने का सदा ही भय रहता है। उसी प्रकार यदि राजा सावधान न रहे तो उसके राज्य के नष्ट होने का खतरा बना रहता है। पुरंदर! बहुत-से शत्रुओं पर एक ही साथ आक्रमण नहीं करना चाहिये। साम, दान भेद और दण्ड के द्वारा इन शत्रुओं में से एक - एक को बारी-बारी से कुचल कर शेष बचे हुए शत्रु को पीस डालने के लिये कुशलता पुर्वक प्रयत्न आरम्भ करे। बुद्धिमान राजा शक्तिशाली होने पर भी सब शत्रुओं को कुचलने का कार्य एक ही साथ आरम्भ न करे। जब हाथी, घोडे़ और रथों से भरी हुई और बहुत- से पैदलों तथा यन्त्रों से सम्पन्न, छः[१] अंगों वाली विशाल सेना स्वामी के प्रति अनुरक्त हो, जब शत्रु की अपेक्षा अपनी अनेक प्रकार से उन्नति होती जान पड़े, उस समय राजा दुसरा कोई विचार मन में लाकर प्रकट रूप से डाकू और लुटेरों पर प्रहार आरम्भ कर दे। शत्रु के प्रति सामनीति का प्रयोग अच्छा नहीं माना जाता, बल्कि गुप्त रूप से दण्ड नीति का प्रयोग ही श्रेष्ठ समझा जाता है। शत्रुओं के प्रति न तो कोमलता और न उन पर आक्रमण करना ही सदा ठीक माना जाता है। उनकी खेती को चैपट करना करना तथा वहाँ के जल आदि में विष मिला देना भी अच्छा नहीं है। इसके सिवा, सात प्रकृतियों पर विचार करना भी उपयोगी नहीं है(उसके लिये तो गुप्त दण्ड का प्रयोग ही श्रेष्ठ है)। राजा विश्वस्त मनुष्यों द्वारा शत्रु के नगर और राज्य में नाना प्रकार के छल और परस्पर वैर-विरोध की सृष्टि कर दे। इसी तरह छः वेष में वहाँ अपने गुप्तचर नियुक्त कर दे ; परंतु अपने यश की रक्षा के लिये वहाँ अपनी ओर से चोरी या गुप्त हत्या आदि कोई पाप कर्म न होने दे। बल और वृत्रासुर को मारने वाले इन्द्र! पृथ्वी का पालन करने वाले राजा लोग पहले इन शत्रुओं के नगरों में विधिपूर्वक व्यवहार में लायी हुई नीति का प्रयोग करके दिखावें। इस प्रकार उनके अनुकूल व्यवहार करके वे उनकी राजधानी में सारे भोगों पर अधिकार प्राप्त कर लेते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हाथी, घोडे, रथ, पैदल, कोश और धनी वैश्य - ये सेना के छः अंग है।

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