महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 109 श्लोक 26-30
नवाधिकशततम (109) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
’किसी के धन का नाश करने से भी अधिक दुःखदायक कर्म है जीवन का नाश; अतः तुम्हें धर्मं की ही रूचि रखनी चाहिये’ यह बात तुम्हें दुष्टों को यत्नपूर्वक बतानी और समझानी चाहिये। पापियों का तो यही निश्चय होता है कि धर्मं कोई वस्तु नहीं है; ऐसे लोगों को जो मार डाले, उसे पाप नहीं लगता। पापी मनुष्य अपने कर्म से ही मरा हुआ है; अतः उसको जो मारता है, वह मरे हुए को ही मारता है। उसके मारने का पाप नहीं लगता; अतः जो कोई भी मनुष्य इन हतबुद्धि पापियों के वध का नियम ले सकता है। जैसे कौए और गीध होते हैं, वैसे ही कपट से जीविका चलाने वाले लोग भी होते हैं। वे मरने के बाद इन्हीं योनियों में जन्म लेते हैं। जो मनुष्य जिसके साथ जैसा बर्ताव करे, उसके साथ भी उसे वैसा ही बर्ताव करना चाहिये; यह धर्म (न्याय) है । कपटपूर्ण आचरण करने वाले को वैसे ही आचरण के द्वारा दबाना उचित है और सदाचारी को सद्व्यवहार के द्वारा ही अपनाना चाहिये।
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