महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 111 श्लोक 14-29
एकादशाधिकशततम (111) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
‘क्या यदि कोई आश्रम में रहकर ब्राह्माण की हत्या करे तो उसे उसका पातक नहीं लगेगा और यदि कोई बिना आश्रम के स्थान में गोदान करें तो क्या वह व्यर्थ हो जायेगा? ‘तुम लोग केवल स्वार्थ के लोभ से मांस भक्षण में रचे-पचे रहते हो। उसके परिणामस्वरुप जो तीन दोष प्राप्त होते हैं, उनकी ओर मोहवश तुम्हारी दृष्टि नहीं जाती। ‘तुम लोगों की जीविका असंतोष से पूर्ण, निन्दनीय, धर्म की हानि के कारण दूषित तथा इहलोक और परलोक में भी अनिष्ट फल देने वाली हैं, इसलिये मैं उसे पसंद नहीं करता हूँ। सियार के इस पवित्र आचार-विचार की चर्चा चारों और फैल जाने के कारण एक प्रख्यात पराक्रमी व्याघ्र ने उसे विद्वान और विशुद्ध स्वभाव का मानकर उसके निकट पदार्पण किया और उसकी अपने अनुरुप करके स्वयं ही मन्त्री बनाने के लिये उसका वरण किया। व्याघ्र बोला- सौम्य ! मैं तुम्हारे स्वरुप से परिचित हूं। तुम मेरे साथ चलो और अपनी रुचि के अनुसार अधिक-से-अधिक भोगों का उपभोग करों। जो वस्तुएं प्रिय न हों, उन्हें त्याग देना। परंतु एक बात मैं तुम्हें सूचित कर देता हूँ। सारे संसार में यह बात प्रसिद्ध हैं कि हमारी जाति का स्वभाव कठोर होता हैं, अत: कोमलतापूर्वक व्यवहार करते हुए मेरे हित-साधन में लगे रहोगे तो अवश्य ही कल्याण के भागी होओगे। महामनस्वी ! मृगराज के उस कथन की भूरि-भूरि प्रशंसा करके सियार ने कुछ नतमस्तक होकर विनययुक्त वाणी मे कहा। सियार बोला- मृगराज ! आपने मेरे लिये जो बात कहीं हैं, वह सर्वथा आपके योग्य ही है तथा आप जो धर्म और अर्थसाधन में कुशल और शुद्ध स्वभाव वाले सहायकों (मन्त्रियों) की खोज कर रहे हैं, यह भी उचित हों। वीर ! मन्त्री के बिना एकाकी राजा विशाल राज्य का शासन नहीं कर सकता। यदि शरीर को सुखा देने वाला कोई दुष्ट मन्त्री मिल गया तो उसके द्वारा भी शासन नहीं चलाया जा सकता। आपके प्रति अनुराग हो, जो नीति के जानकार, सदभाव- सम्पन्न, परस्पर गुटबंदी से रहित, विजय की अभिलाषा से युक्त, लोभरहित, कपटनीति में कुशल, बुद्धिमान, स्वामी के हित साधन में तत्पर और मनस्वी हों, ऐसे व्यक्तियों को सहायक या सचित्र बनाकर आप पिता और गुरु के समान उनका सम्मान करें। मृगराज ! मुझे तो संतोष के सिवा और कोई वस्तु रुचती ही नहीं हैं। मैं सुख, भोग और उनके आधारभूत ऐश्वर्य को नहीं चाहता । आपके पुराने सेवकों के साथ मेरे शील स्वभाव का मेल नहीं खायेगा। वे दुष्ट स्वभाव के जीव हैं। अत: मेरे निमित वे लोग आपके कान भरते रहेंगे। आप अन्याय तेजस्वी प्राणियों के भी स्पृहणीय आश्रय हैं। आपकी बुद्धि सुशिक्षित है। आप महान् भाग्यशाली तथा अपराधियों के प्रति भी दयालु हैं। आप दूरदर्शी, महान उत्साही, स्थूललक्ष्य (जिसका उदेश्य बहुत स्पष्ट हो वह), महाबली, कृतार्थ, सफलता-पूर्वक कार्य करने वाले तथा भाग्य से अलंकृत हैं। इधर मैं अपने आप में ही संतुष्ट रहने वाला हूँ। मैंने ऐसी जीविका अपनायी हैं, जो अत्यन्त दु:खमयी है। मैं राजसेवा के कार्य से अनभिज्ञ और वन में स्वच्छन्दतापूर्वक घूमने वाला हूँ।
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