महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 111 श्लोक 45-60
एकादशाधिकशततम(111) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
एक दिन उसके सेवको ने शेर के खाने के लिये जो मांस तैयार करके रखा गया था, उसके स्थान से हटाकर सियार के घर में रख दिया। जिसने जिस उदेश्य से उस मांस को चुराया और जिसने ऐसा करने की सलाह दी, वह सब कुछ सियार को मालूम हो गया था, तो भी किसी कारणवश उसने चुपचाप सह लिया। मन्त्री पद पर आते समय सियार ने यह शर्त करा ली थी कि राजन ! यदि आप मुझसे मैत्री चाहते हैं तो किसी के बहकावे आकर मेरा विनाश न कर डालियेगा। भीष्म जी कहते हैं- राजन ! उधर शेर को जब भूख लगी और वह भोजन के लिये उठा, तब उसके खाने के लिये जो परोसा जाने वाला था, वह मांस उसे नहीं दिखायी दिया। तब मृगराज ने सेवकों को आज्ञा दी कि चोर का पता लगाओ। तब जिनकी यह करतूत थी, उन्हीं लोगों ने उस मांस के बारे में शेर को बताया- ‘महाराज ! अपने को अत्यन्त बुद्धिमान और पण्डित मानने वाले आपके मन्त्री महोदय ने ही इस मांस का अपहरण किया है’। सियार की यह चपलता सुनकर शेर गुस्से से भर गया। उससे यह बात सही नहीं गयी, अत: मृगराज ने उसका वध करने का ही विचार कर लिया। उसका यह छिद्र देखकर पहले के मन्त्री आपस में कहने लगे, वह हम सब लोगों की जीविका नष्ट करने पर तुला हुआ हैं, वे उसके अपराधों का वर्णन करने लगे। ‘महाराज ! जब उसके द्वारा ऐसा कर्म किया जा सकता है, तब वह और क्या नहीं कर सकता ? स्वामी ने पहले उसके बारे में जैसा सुन रखा है, वह वैसा नहीं है। ‘वह बातों से ही धर्मात्मा बना हुआ है। स्वभाव से तो बड़ा क्रुर है। भीतर से यह बड़ा पापी है। परंतु ऊपर से धर्मात्मापन का ढोंग बनाये हुए हैं। उसका सारा आचार-विचार व्यर्थ दिखावे के लिये है। ‘उसने तो अपना काम बनाने और पेट भरने के लिये ही व्रत करने में परिश्रम किया है। यदि आपको विश्वास न हो तो यह लीजिये, हम अभी उसके यहां से मांस ले आकर दिखाते हैं। ऐसा कहकर वे क्षणभर में ही सियार के घर से उस मांस को उठा लाये। मांस के अपहरण ही बात जानकर और उन सेवकों की बातें सुनकर शेर ने उस समय यह आज्ञा दे दी कि सियार को मृत्युदण्ड दे दिया जाय। शेर की यह बात सुनकर उसकी माता हितकर वचनों द्वारा उसे समझाने के लिये वहां आयी और बोली- ‘बेटा ! इसमें कुछ कपटपूर्ण षड्यन्त्र हुआ मालूम पड़ता है; अत: तुम्हें इस पर विश्वास नहीं करना चाहिये। ‘काम में लांग-डांट हो जाने से जिनके मन में शुद्धभाव नहीं हैं, वे लोग निर्दोष पर ही दोषारोपण करते हैं। किसी को अपने से उंची अवस्था में देख कर कोई-कोई ईर्ष्यावश सहन नहीं कर पाते। यही वैरभाव उत्पन्न करने वाली प्रक्रिया हैं। ‘कोई कितना ही शुद्ध और उद्योगी क्यों न हो, लोग उस पर दोषारोपण कर ही देते हैं। अपने धार्मिक कर्मों में लगे हुए वनवासी मुनि के भी शत्रु, मित्र और उदासीन- ये तीन पक्ष पैदा हो जाते हैं।
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