महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 118 श्लोक 1-20

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अष्‍टादशाधिकशततम(118) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍टादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

राजा के सेवक, सचिव तथा सेनापति आदि और राजा के उतम गुणों का वर्णन एवं उनसे लाभ भीष्‍म उवाच भीष्‍म जी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार अपनी योनि में आकर वह कुता अत्‍यन्‍त दीनदशा को पहंच गया। ॠषि ने हुंकार करके उस पापी को तपोवन से बाहर निकाल दिया।। इसी प्रकार बुद्धिमान राजा को चाहिये कि वह पहले अपने सेवकों की सच्‍चाई, शुद्धता, सरलता, स्‍वभाव, शास्‍त्रज्ञान, सदाचार, कुलीनता, जितेन्‍द्रीयता, दया, बल, पराक्रम, प्रभाव, विनय तथा क्षमा आदि का पता लगाकर जो सेवक जिस कार्य के योग्‍य जान पड़ें, उन्‍हें उसी में लगावे और उनकी रक्षा का पूरा-पूरा प्रबन्‍ध कर दे। राजा परीक्षा लिये बिना किसी को भी अपना मन्‍त्री न बनावे;क्‍योंकि नीच कुल के मनुष्‍य का साथ पाकर राजा को न तो सुख मिलता है और न उसकी उन्‍नति ही होती है। कुलीन पुरुष यदि कभी राजा के द्वारा बिना अपराध के ही तिरस्‍कृत हो जाय और लोग उसे फोड़े या उभाड़ें तो भी वह अपनी कुलनीता के कारण राजा का अनिष्‍ट करने की बात कभी मन में नहीं लाता है। किंतु नीच कुल का मनुष्‍य साधुस्‍वभाव के राजा का आश्रय पाकर यद्यपि दुर्लभ ऐश्‍वर्य का भोग करता है
तथापि यदि राजा ने एक बार भी उसकी निन्‍दा कर दी तो वह उसका शत्रु बन जाता है। अत: राजा उसी को मन्‍त्री बनावे, जो कुलीन, सुशिक्षित,विद्वान, ज्ञान-विज्ञान में पारगंत, सब शास्‍त्रों का तत्‍व जाननेवाला, सहनशील, अपने देश का निवासी, कृतज्ञ,बलवान्, क्षमाशील, मन का दमन करनेवाला, जितेन्‍द्रीय, निर्लोभ, जो मिल जाय उसी से संतोष करनेवाला, स्‍वामी और उसके मित्र की उन्‍नति चाहनेवाला, देश-काल का ज्ञाता, आवश्‍यक वस्‍तुओं के संग्रह में तत्‍पर, सदा मन को वश में रखनेवाला, संधि और विग्रह के अवसर को समझने में कुशल, राजा के धर्म, अर्थ और काम की उन्‍नति का उपाय रखनेवाला, नगर और ग्रामवासी लोगों का प्रिय, खाई और सुरंग खुदवाने तथा व्‍यूह निर्माण कराने की कला में कुशल, अपनी सेना का उत्‍साह बढ़ाने में प्रवीण, शकल-सूरत और चेष्‍टा देखकर ही मन के यथा‍र्थ भाव को समझ लेनेवाला, शत्रुओं पर चढ़ाई करने के अवसर को समझने में विशेष आतुर, हाथी की शिक्षा के यथार्थ तत्‍व को जाननेवाला, अहंकाररहित, निर्भीक, उदार, संयमी, बलवान्, उचित कार्य करनेवाला, शुद्ध पुरुषों से युक्‍त, प्रसन्‍नमुख, प्रियदर्शन, नेता, नीतिकुशल, श्रेष्‍ठ गुण और उतम चेष्‍टाओं से सम्‍पन्‍न,उदण्‍डतारहित, विनयशील, स्‍नेही, मृदुभाषी, धीर, शूरवीर, महान् ऐश्‍वर्य से सम्‍पन्‍न तथा देश और काल के अनुसार कार्य करनेवाला हो। जो राजा ऐसे योग्‍य पुरुष को सचिव (मन्‍त्री) बनाता है और उसका कभी अनादर नहीं करता हैं, उसका राज्‍य चन्‍द्रमा की चांदनी के समान चारों और फैल जाता है। राजा को ऐसे ही गुणों से युक्‍त होना चाहिये। साथ ही उसमें शास्‍त्रज्ञान, धर्मपरायणता और प्रजापालन की लगन भी होनी चाहिये; ऐसा ही राजा प्रजाजनों के लिये वांछनीय होता है।
राजा धीर, क्षमाशील, पवित्र, समय-समय पर तीक्ष्‍ण, पुरुषार्थ को जाननेवाला, सुनने के लिये उत्‍सुक, वेदज्ञ, श्रवणपरायण तथा तर्क-वितर्क में कुशल हों मेधावी, धारणाशक्ति से सम्‍पन्‍न, यथोचित कार्य करनेवाला, इन्द्रियसंयमी, प्रिय वचन बोलनेवाला तथा शत्रु को भी क्षमा करनेवाला हो। राजा को दान की परम्‍परा का कभी उच्‍छेद न करनेवाला, श्रद्धालु, दर्शनमात्र से सुख देनेवाला, दीन-दु:खियों को सदा हाथ का सहारा देनेवाला, विश्‍वसनीय मन्त्रियों से युक्‍त तथा नीतिपरायण होना चाहिये। वह अंहकार छोड़ दे, द्वन्‍द्वों से प्रभावित न हो, जो ही मन में आवे वही न करने लगे, मन्त्रियों के किये हुए कर्म का अनुमोदन करे और सेवकों पर प्रेम रखे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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