महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 121 श्लोक 45-59
एकविंशत्यधिकशततम(121) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
अथवा संयुक्त अंग के रथी, हाथीसवार, घुड़सवार, पैदल, मन्त्री, भिक्षुक, वकील, ज्योतिषी, दैवज्ञ, कोश, मित्र, धान्य तथा अन्य सब सामग्री, राज्य की सात प्रकृतियां (स्वामी, अमात्य, सुहद्, कोश, राष्ट्र, दुर्ग और सेना) और उपर्युक्त आठ अंगों से युक्त बल-इन सबको राज्य का शरीर माना गया है। इन सब में दण्ड ही प्रधान अंग है, क्योंकि दण्ड ही सब की उत्पति का कारण है। ईश्वर ने यत्नपूर्वक धर्मरक्षा के लिये क्षत्रिय के हाथ में उसके समान जातिवाला दण्ड समर्पित किया है; इसलिये दण्ड ही इस सनातन व्यवहार का कारण है।।ब्रह्जी ने लोकरक्षा तथा स्वधर्म की स्थापना के निमित धर्म का प्रदर्शन(उपदेश) किया था, वह दण्ड ही है। राजाओं के लिये उससे बढ़कर परम पूजनीय दूसरा धर्म नहीं है। स्वामी अथवा विचार के विश्वास के अनुसार जो व्यवहार उत्पन्न होता हैं, वह (वादी-प्रतिवादी द्वाराउठाये हुए विवाद से उत्पन्न व्यवहार की अपेक्षा) भिन्न ‘भर्तृप्रत्ययलक्षण’ वह सम्पूर्ण जगत् के लिये हितकर देखागया है (यह पहला भेद है)। नरश्रेष्ठ ! वेदप्रतिपादित दोषों का आचरण करने वाले अपराधी लिये जो व्यवहार या विचार होता है, वह वेदप्रत्यय कहलाता है (यह दूसरा भेद है) और कुलाचार भंग करने के अपराध पर किये जानेवाले विचार या व्यवहार को मौल कहते हैं (यह तीसरा भेद है)। इसमें भी शास्त्रोक्त दण्ड का ही विधान किया जाता है।। पहले जो भर्तृप्रत्ययलक्षण दण्ड बताया गया है, वह हमें राजा में ही स्थित जानना चाहिये, क्योंकि वह विश्वास और दण्ड राजा पर ही अवलम्बित है। यद्यपि स्वामी के विश्वास के आधार पर ही वह दण्ड देखा गया है; तथापि उसे भी व्यवहार स्वरुप ही माना गया हैं। जिसे व्यवहार माना गया है, वह भी वेदोक्त विषयसे भिन्न नहीं है। जिसका स्वरुप वेद से प्रकट हुआ है, वह धर्म ही है। जो धर्म है, वह अपना गुण (लाभ) दिखाता ही है। पुण्यात्मा पुरुषों ने धर्म के अनुसार ही धर्मविश्वास मूलक दण्ड का प्रतिपादन किया है।
युधिष्ठिर ! ब्रह्जी का बनाया हुआ जो प्रजा-रक्षक व्यवहार है, वह सत्यस्वरुप होने के साथ ही ऐश्वर्य की वृद्धि करनेवाला है; वही तीनों लोकों की धारण करता है। जो दण्ड है, वही हमारी दृष्टि में सनातन व्यवहार है। जो व्यवहार देखा गया हैं, वही वेद है, यह निश्चितरुप से कहा जा सकता है। जोवेद हैं, वही धर्म है और जो धर्म है, वही सत्पुरुषों का सन्मार्ग है। सत्पुरुष हैं लोकपितामह प्रजापति ब्रह्जी,जो सबसे पहले प्रकट हुए थे। वे ही देवता, मनुष्य, नाग, असुर तथा राक्षसोंसहित सम्पूर्ण लोकों के कर्ता तथा समस्त प्राणियों के स्त्रष्टा है।। उन्हीं से भर्तृप्रत्यय नामक इस अन्य प्रकार के दण्ड की प्रवृति हुई, फिर उन्होंने ही इस व्यवहार के लिये यह आदर्श वाक्य कहा- ‘माता,पिता, भाई, स्त्री तथा पुरोहित कोई भी क्यों न हो, जो अपने धर्म में स्थिर नहीं रहता, उसे राजा अवश्य दण्ड दें, राजा के लिये कोई भी अदण्डनीय नहीं है’।।
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