महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 130 श्लोक 1-13
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त्रिंशदधिकशततम (130) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
- आपतिके समय राजा का धर्म
युधिष्ठिर ने पूछा- भारत ! यदि राजा के शत्रु अधिक हो जायं, मित्र उसका साथ छोड़ने लगें और सेना तथा खजाना भी नष्ट हो जाय तो उसके लिये कौन-सा मार्ग हितकर है? दुष्ट मन्त्री हीजिसका सहायक हो, इसलिये जो श्रेष्ठ परामर्श भ्रष्ट हो एवं राज्य से जिसके भ्रष्ट हो जाने की सम्भावना हो और जिसे अपनी उन्नति का कोई श्रेष्ठ उपाय न दिखायी देताहो, उसके लिये क्या कर्तव्य है? जो शत्रुसेना पर आक्रमण करके शत्रु के राज्य को रौंद रहा हो; इतने ही में कोई बलवान् राजा उस पर भी चढ़ाई कर दे तो उसके साथ युद्ध में लगे हुए उस दुर्बल राजा के लिये क्या आश्रम है? जिसने अपने राज्य का रक्षा नहीं की हो, जिसे देश और काल का ज्ञान नहीं हो, अत्यन्त पीड़ा देने के कारण जिसके लियेसाम अथवा भेदनीति का प्रयोग असम्भव हो जाय, उसके लिये क्या करना उचित है वह जीवन की रक्षा करे या धन के साधन की ? उसके लिये क्या करने में भलाई है? भीष्मजी ने कहा-धर्मनन्दन ! भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर ! यह तो तुमने मुझसे बड़ा गोपनीय विषय पूछा है। यदि तुम्हारे द्वारा प्रश्न न किया गया होता तो मैं इस समय इस संकटकालिक धर्म के कुछ भी नहीं कह सकता था। भरतभुषण ! धर्म का विषय बड़ा सूक्ष्मू है, शास्त्र-वचनों के अनुशीलन से उसका बोध होता है। शास्त्रश्रवण करने के पश्चात् अपने सदाचरणों द्वारा उसका सेवन करके साधु जीवन व्यतीत करनेवाला पुरुष कही कोई बिरला ही होता है। बुद्धिपूर्वक किये हुए कर्म (प्रयत्न)-से मनुष्य धनाढय हो भी सकता है और नही भी हो सकता है। तुम्हें ऐसे प्रश्न पर स्वयं अपनी ही बुद्धि से विचार करके किसी निश्चय पर पहुंचना चाहिये। भारत ! उपर्युक्त संकट के समय राजाओं के जीवन की रक्षा के लिये मैं ऐसा उपाय बताता हूं जिसमें धर्म की अधिकता हैं, उसे ध्यान देकर सुनो। परंतु मैं धर्माचरण उदेश्य से ऐसे धर्म की नहीं अपनाना चाहता। आपति के समय भी यदि प्रजा को दु:ख देकर धन वसूल किया जाता हैतो पीछे वहराजा के लिये विनाश के तुल्य सिद्ध होता है। आश्रय लेने योग्य जितनी बुद्धियां हैं, उन सबको यही निश्चय है। पुरुष प्रतिदिन जैसे-जैसे शास्त्र का स्वाध्याय करता है वैसे-वैसे उसका ज्ञान बढ़ता जाता है फिर तो विशेष ज्ञान प्राप्त करने में उसकी रुचि हो जाती है। ज्ञान न होने से मनुष्य को संकटकाल में उससे बचने के लिये कोई योग्य उपाय नहीं सूझता; परंतु ज्ञान से वह उपाय ज्ञात हो जाता है।उचित उपाय ही ऐश्वर्य की वृद्धि करने का श्रेष्ठ साधन है। तुम मेरी बात पर संदेह न करते हुए दोषदृष्टि का परित्याग करके यह उपदेश सुनो। खजाने के नष्ट होने से हो सजा के बल का नाश होता है। जैसे मनुष्य निर्जल स्थानों से खोदकर जल निकाल में निर्धन प्रजा से भी यथासाध्य धन लेकर अपना खजाना बढ़ावे; फिर अच्छा समय आनेपर उस धन के द्वारा प्रजा पर अनुग्रह करे, यही सनातनकाल से चला आनेवाला धर्म है। पूर्ववर्ती राजाओं ने भी आपतिकाल में इस उपायधर्म को पाकर इसका आचरण किया है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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