महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 130 श्लोक 42-50
त्रिंशदधिकशततम (130) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
परंतप ! इस प्रकार जो मनुष्य (प्रजा रक्षा के लिये किये जानेवाले) महान् कोश के संग्रह में बाधा उपस्थित करते हैं, उनका वध किये बिना इस कार्य में मुझे सफलता होती नहीं दिखायी देती। धन से मनुष्य इहलोक और परलोक दोनों पर विजय पाता हैं तथा सत्य और धर्म का भी सम्पादन कर लेता हैं, परंतु निर्धन की इस कार्य में वेसी सफलता नहीं मिलती। उसका अस्तित्व नहीं के बराबर होता है। भरतनन्दन ! यज्ञ करने के उदेश्य को लेकर सभी उपायों से धन का संग्रह करे; इसप्रकार करने और न करने योग्य कर्म बन जानेपर भी कर्ता को अन्य अवसरों के समान दोष नहीं लगाता। राजन् ! पृथ्वीनाथ ! धन का संग्रह और उसका त्याग-ये दोनों एक व्यक्ति में एक हीसाथ किसी तरह नहीं रह सकते; क्योंकि मैं वन में रहनेवाले त्यागी महात्माओं को कहीं भी धन में बढ़ा-चढ़ा नहीं देखता। यहां इस पृथ्वी पर यह जो कुछ भी धन देखा जाता हैं, ‘यह मेरा हो जाय, यह मेरा हो जाय’, ऐसी ही अभिलाषा सभी लोगों को रहती है। परंतप ! राजा के लिये राज्य की रक्षा के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है। अभी जिस धर्म की चर्चा की गयी है, वह केवल राजाओं के लिये आपतिकाल में ही आचरण में लाने योग्य है; अन्यथा नहीं। कुछ लोग दान से, कुछ लोग यज्ञकर्म करने से, कुछ तपस्वी तपस्या करने से, कुछ लोग बुद्धि से और अन्य बहुत-से मनुष्य कार्यकौशलसे धनराशी प्राप्त कर लेते है। निर्धन को दुर्बल कहा जाता है। धन से मनुष्य बलवान् होता है। धनवान् को सब कुछ सुलभ हैं। जिसके पास खजाना है, वह सारे संकटों से पार हो जाता है। धन-संचय से ही धर्म, काम, लोक तथा परलोक की सिद्धि होती है। उस धन को धर्म से ही पाने की इच्छा करे, अधर्म से कभी नहीं।
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