महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 138 श्लोक 1-16
अष्टात्रिंशदधिकशततम (138) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
- शत्रुओं से घिरे हुए राजा के कर्तव्य के विषय में बिडाल और चूहे का आख्यान
युधिष्ठिर बोले–भरतश्रेष्ठ! आपने सर्वत्र अनागत (सकंट आने से पहले ही आत्मरक्षा की व्यवस्था करने वाली) तथा प्रत्युत्पन्न (समय पर बचाव का उपाय सोच लेने वाली) बुद्धि को ही श्रेष्ठ बताया है और प्रत्येक कार्य में आलस्य के कारण विलम्ब करने वाली बुद्धि को विनाशकारी बताया है। भरतभूषण! अत: अब मैं उस श्रेष्ठ बुद्धि के विषय में आपसे सुनना चाहता हूं, जिसका आश्रय लेने से धर्म और अर्थ में कुशल तथा धर्मशास्त्रविशारद राजा शत्रुओं–द्वारा घिरा रहने पर भी मोह में नहीं पड़ता । कुरूश्रेष्ठ! उसी बुद्धि के विषय में मैं आपसे प्रश्न करता हूं अत: आप मेरे लिये उसकी व्याख्या करें। बहुत–से शत्रुओं का आक्रमण हो जाने पर राजा को कैसा बर्ताव करना चाहिये? यह सब कुछ मैं विधिपूर्वक सुनना चाहता हूं। पहले के सताये हुए डाकू आदि शत्रु जब राजा को संकट में पडा़ हुआ देखते हैं, तब वे बहुत-से मिलकर उस असहाय राजा को उखाड़ फेंकने का प्रयत्न करते हैं। जब अनेक महाबली शत्रु किसी दुर्बल राजा को सब ओर से हड़प जाने के लिये तैयार हो जायं, तब उस एकमात्र असहाय नरेश के द्वारा उस परिस्थिति का कैसे सामना किया जा सकता है? राजा किस प्रकार मित्र और शत्रु को अपने वश में करता है तथा उसे शत्रु और मित्र के बीच में रहकर कैसी चेष्टा करनी चाहिये? पहले लक्षणों द्वारा जिसे मित्र समझा गया है, वही मनुष्य यदि शत्रु हो जाय, तब उसके साथ कोई पुरूष कैसा बर्ताव करे? अथवा क्या करके वह सुखी हो? किसके साथ विग्रह करे? अथवा किसके साथ संधि जोडे़ और बलवान् पुरूष भी यदि शत्रुओं के बीच में मिल जाय तो उसके साथ कैसा बर्ताव करे? परंतप पितामह! यह कार्य समस्त कार्यों में श्रेष्ठ है। सत्यप्रतिज्ञ जितेन्द्रिय शान्तनुनन्दन भीष्म के सिवा, दूसरा कोई इस विषय को बताने वाला नहीं है। इसको सुनने वाला भी दुर्लभ ही है। अत महाभाग! आप उसका अनुसंधान करके यह सारा विषय मुझसे। भीष्मजी ने कहा–भरतनन्दन बेटा युधिष्ठिर! तुम्हारा यह विस्तारपूर्वक पूछना बहुत ठीक है। यह सुख की प्राप्ति कराने वाला है। आपति के समय क्या करना चाहिये? यह विषय गोपनीय होने से सबको मालूम नहीं है। तुम यह सब रहस्य मुझसे सुनो। भिन्न–भिन्न कार्यो का ऐसा प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण कभी शत्रु भी मित्र बन जाता है और कभी मित्र का मन भी द्वेषभाव से दूषित हो जाता है। वास्तव में शत्रु-मित्र की परिस्थिति सदा एक-सी नहीं रहती है। अत देश-काल को समझकर कर्तव्य–अकर्तव्यका निश्चय करके किसी पर विश्वास और किसी के साथ युद्ध करना चाहिये। भारत कर्तव्य का विचार करके सदा हित चाहने वाले विद्वान् मित्रों के साथ संधि करनी चाहिये और आवश्यकता पड़नें पर शत्रुओं से भी संधि कर लेनी चाहिये, क्योकि प्राणों की रक्षा सदा ही कर्तव्य है। भारत! जो मूर्ख मान शत्रुओ के साथ कभी किसी भी दशा में संधि नहीं करता, वह अपने किसी भी उद्देश्य को सिद्ध नहीं कर सकता और न कोई फल ही पा सकता है।
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