महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 138 श्लोक 212-221
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अष्टात्रिंशदधिकशततम (138) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
इसलिये बुद्धिमान पुरूष को डरते हुए भी निर्भय के समान रहना चाहिये तथा भीतर से विश्वास न करते हुए भी ऊपर से विश्वासी पुरूष की भांति बर्ताव करना चाहिये। कार्यों की कठिनता देखकर कभी कोई मिथ्या आचरण नहीं करना चाहिये। युधिष्ठिर! इस प्रकार यह मैंने तुम्हारे सामने नीति की बात बताने के लिये चूहे तथा बिलाव के इस प्राचीन इतिहास का वर्णन किया है। इसे सुनकर तुम अपने सुहृदों के बीच में यथा योग्य बर्ताव करो। श्रेष्ठ बुद्धि का आश्रय लेकर शत्रु और मित्र के भेद, संधि और विग्रह के अवसर का तथा विपत्ति से छूटने के उपाय का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। अपने और शत्रु के प्रयोजन यदि समान हो तो बलवान शत्रु के साथ संधि करके उससे मिलकर युक्तिपूर्वक अपना काम बनावे और कार्य पूरा हो जाने पर फिर कभी उसका विश्वास न करे। पृथ्वीनाथ! यह नीति धर्म, अर्थ और काम के अनुकूल है। तुम इसका आश्रय लो। मुझसे सुने हुए इस उपदेश के अनुसार कर्तव्यपालन में तत्पर हो सम्पूर्ण प्रजा की रक्षा करते हुए अपनी उन्नति लिये उठकर खडे़ हो जाओ। पाण्डुनन्दन! तुम्हारी जीवन यात्रा ब्राह्मणों के साथ होनी चाहिये। भरतनन्दन! ब्राह्मण लोग इहलोक और परलोक में भी परम कल्याणकारी होते हैं । प्रभो! नरेश्वर! ये ब्राह्मण धर्मज्ञ होने के साथ ही सदा कृतज्ञ होते हैं। सम्मानित होने पर शुभकारक एवं शुभचिन्तक होते है; अत: इनका सदा आदर-सम्मान करना चाहिये। राजन्! तुम ब्राह्मणों के यथोचित सत्कार से क्रमश: राज्य, परम कल्याण, यश, कीर्ति तथा वंश परम्परा को बनाये रखने वाली संतति सब कुछ प्राप्त कर लोगे। भरतनन्दन! नरेश्वर! चूहे और बिलाव का जो यह सुन्दर उपाख्यान कहा गया है, यह संधि और विग्रह का ज्ञान तथा विशेष बुद्धि उत्पन्न करने वाला है। भूपाल को सदा इसी के अनुसार दृष्टि रखकर शत्रु मण्डल के साथ यथोचित व्यवहार करना चाहिये।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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