महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 138 श्लोक 69-84
अष्टात्रिंशदधिकशततम (138) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
‘मैं भारी विपत्ति में फंसा हूं और तुम भी महान संकट में पड़े हो । इस प्रकार आपत्ति में पडे़ हुए हम दोनों को संधि कर लेनी चाहिये। इसमें विलम्ब न हो। ‘प्रभों! समय आने पर तुम्हारे अभीष्ट की सिद्धि करने वाला जो भी कार्य होगा, उसे अवश्य करूंगा। इस संकट से मेरे मुक्त हो जाने पर तुम्हारा किया हुआ उपकार नष्ट नहीं होगा। मैं इसका बदला अवश्य चुकाऊंगा। ‘इस समय मेरा मान भंग हो चुका है। मैं तुम्हारा भक्त और शिष्य हो गया हूं। तुम्हारे हित का साधन करूंगा और सदा तुम्हारी आज्ञा के अधीन रहूंगा। मैं सब प्रकार से तुम्हारी शरण में आ गया हूं। बिलाव के ऐसा कहने पर अपने प्रयोजन को समझने-वाले पलित ने वश में आये हुए उस बिलाव से यह अभिप्रयापूर्ण हितकर बात कही- ‘भैया बिलाव! आपने जो उदारतापूर्ण वचन कहा है, यह आप-जैसे बुद्धिमान के लिये आश्चर्य की बात नहीं है। मैंने दोनो के हित के लिये जो बात निर्धारित की, वह मुझसे सुनो। ‘भैया!, इस नेवले से मुझे बड़ा डर लग रहा है। इसलिये मैं तुम्हारे पीछे इस जाल में प्रवेश कर जाऊगा, परंतु दादा! तुम मुझे मार न डालना, बचा लेना; क्योंकि जीवित रहने पर ही मैं तुम्हारी रक्षा करने में समर्थ हूं। ‘इधर यह नीच उल्लू भी मेरे प्राण का ग्राहक बना हुआ है। इससे भी तुम मुझे बचा लो। सखे, मैं तुमसे सत्य की शपथ खाकर कहता हूं, मैं तुम्हारे बन्धन काट दूंगा। चूहे की यह युक्तियुक्त, सुसंगत और अभिप्रायपूर्ण बात सुनकर लोमश ने उसकी ओर हर्ष भरी दृष्टि से देखा तथा स्वागतपूर्वक उसकी भूरि–भूरि प्रशंसा की। इस प्रकार पलित की प्रशंसा एवं पूजा करके सौहार्द में प्रतिष्ठित हुए धीरबुद्धि मार्जार ने भलीभॉति सोच-विचारकर तुरंत ही प्रसन्नतापूर्वक कहा- ‘भैया! शीघ्र आओ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम तो हमारे प्राणों के समान प्रिय सखा हो। विद्वन्! इस समय मुझे प्राय: तुम्हारी ही कृपा से जीवन प्राप्त होगा। ‘सखे! इस दशा में पड़े हुऐ मुझ सेवक के द्वारा तुम्हारा जो–जो कार्य किया जा सकता हो, उसके लिये मुझे आज्ञा दो, मैं अवश्य करूंगा। हम दोनों में संधि रहनी चाहिये। ‘इस संकट से मुक्त होने पर मैं अपने सभी मित्रों और बन्धु–बान्धवों के साथ तुम्हारे सभी प्रिय एवं हितकर कार्य करता रहूंगा। ‘सौम्य! इस विपत्ति से छुटकारा पाने पर मैं भी तुम्हारे हृदय में प्रीति उत्पन्न करूंगा। तुम मेरा प्रिय करने वाले हो, अत: तुम्हारा भलीभॉति आदर–सत्कार करूंगा। ‘कोई किसी के उपकार का कितना ही अधिक बदला क्यों न चुका दें; वह प्रथम उपकार करने वाले के समान नहीं शोभा पाता है; क्योंकि एक तो किसी के उपकार करने पर बदले में उसका उपकार करता है; परंतु दूसरे ने बिना किसी कारण के ही उसकी भलाई की है। भीष्मजी कहते हैं–युधिष्ठिर! इस प्रकार चुहे ने बिलाव से अपने मतलब की बात स्वीकार कराकर और स्वयं भी उसका विश्वास करके उस अपराधी शत्रु की भी गोद में जा बैठा। बिलावने जब उस विद्वान् चूहे को पूर्वोक्तरूप से आश्वासन दिया, तब वह माता–पिता की गोद के समान उस बिलाव की छाती पर निर्भय होकर सो गया।
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