महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 147 श्लोक 1-11
सप्तचत्वारिंशदधिकशततम (147) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
- बहेलिये का वैराग्य
भीष्मजी कहते हैं- राजन्! भूख से व्याकुल होने पर भी बहेलिये जब देखा कि कबूतर आग में कूद पड़ा, तब वह दुखी होकर इस प्रकार कहने लगा- ‘हाय! मुझ क्रुर और बुद्धिहीन ने कैसा पाप कर डाला? मैंने अपना जीवन ही ऐसा बना रखा है कि मुझसे नित्य पाप बनता ही रहेगा’। इस प्रकार बारंबार अपनी निन्दा करता हुआ वह फिर बोला- ‘मैं बड़ा दुष्ट बुद्धि का मनुष्य हूं, मुझ पर किसी को विश्वास नहीं करना चाहिये। शठता और क्रूरता ही मेरे जीवन का सिद्धान्त बन गया है। ‘अच्छे-अच्छे कर्मों को छोड़कर मैंने पक्षियों को मारने और फंसाने का धंधा अपना लिया है। मुझ क्रूर और कुकर्मी को महात्मा कबूतर ने अपने शरीर की आहुति दे अपना मांस अर्पित किया है। इसमें संदेह नहीं कि इस अपूर्व त्याग के द्वारा उसने मुझे धिक्कारते हुए धर्माचरण करने का आदेश दिया है । ‘अब मैं पाप से मूंह मोड़कर स्त्री, पुत्र तथा अपने प्यारे प्राणों का भी परित्याग कर दूंगा। महात्मा कबूतर ने ने मुझे विशुद्ध धर्म का उपदेश दिया है। ‘आज से मैं अपने शरीर को सम्पूर्ण भोगों से वंचित करके उसी प्रकार सुखा डालूंगा, जैसे गर्मी में छोटा-सा तालाब सूख जाता है। ‘भूख, प्यास और धूप का कष्ट सहन करते हुए शरीर को इतना दुर्बल बना दूंगा कि सारे शरीर में फैली हुई नाड़िया स्पष्ट दिखायी देंगी। मैं बारंबार अनेक प्रकार से उपवास व्रत करके परलोक सुधारने वाला पुण्य कर्म करूंगा। ‘अहो! महात्मा कबूतर ने अपने शरीर का दान करके मेरे सामने अतिथि–सत्कार का उज्ज्वल आदर्श रखा है, अत: मैं भी अब धर्म का ही आचरण करूंगा; क्योंकि धर्म ही परम गति है। उस धर्मात्मा श्रेष्ठ पक्षी में जैसा धर्म देखा गया है, वैसा ही मुझे भी अभीष्ट है। ऐसा कहकर धर्माचरण का ही निश्चय करके वह भयानक कर्म करने वाला व्याध कठोर व्रत का आश्रय ले महाप्रस्थान के पथकर चल दिया। उस समय उसने उस बन्दी की हुई कबूतरी को पिंजरे से मुक्त करके अपनी लाठी, शलाका, जाल, पिंजड़ा सब कुछ छोड़ दिया।
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