महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 150 श्लोक 1-19
पञ्चाशदधिकशततम (150) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
- इन्द्रोत मुनि का राजा जनमेजय को फटकारना
युधिष्ठिर ने पूछा- भरतश्रेष्ठ! यदि कोई पुरूष अनजाने में किसी तरह का पाप कर्म कर बैठे तो वह उससे किस प्रकार मुक्त हो सकता है? यह सब मुझे बताइये। भीष्मजी ने कहा- राजन्! इस विषय में ॠषियों-द्वारा प्रशंसित एक प्राचीन प्रसंग एवं उपदेश तुम्हें सुनाऊंगा, जिसे शुनकवंशी विप्रवर इन्द्रोतने राजा जनमेजय से कहा था। पूर्वकाल में परिक्षित के* पुत्र राजा जनमेजय बडे़ पराक्रमी थे; परंतु उन्हें बिना जाने ही ब्रह्महत्या का पाप लग गया था। इस बात को जानकर पुरोहित सहित सभी ब्राह्मणों ने जनमेजय को त्याग दिया। राजा चिन्ता से दिन–रात जलते हुए वन में चले गये। प्रजा ने भी उन्हें गद्दी से उतार दिया था; अत: वे वन में रहकर महान् पुण्य कर्म करने लगे। दु:ख से दग्ध होते हुए वे दीर्घकाल तक तपस्या में लगे रहे। राजा ने सारी पृथ्वी के प्रत्येक देश में घूम-घूमकर बहु-तेरे ब्राह्मणों से ब्रहमहत्या–निवारण के लिये उपाय पूछा। राजन्! यहां मैं तो इतिहास बता रहा हूं, वह धर्म की वृद्धि करने वाला है। राजा जनमेजय अपने पाप–कर्म से दग्ध होते और वन में विचरते हुए कठोर व्रत का पालन करने वाले शुनकवंशी इन्द्रोत मुनि के पास जा पहुंचे। वहां जाकर उन्होंने मुनि के दोनों पैर पकड़ लिये और उन्हें धीरे-धीरे दबाने लगे। ॠषि ने वहां राजा को देखकर उस समय उसकी बड़ी निन्दा की। वे कहने लगे-अरे! तू तो महान् पापाचारी और ब्रह्महत्यारा है। यहां कैसे आया? हम लोगों से तेरा क्या काम है? मुझे किसी तरह छुना मत। जा-जा तेरा यहां ठहरना हम लोगों को अच्छा नहीं लगता। ‘तुम से रूधिर की–सी गन्ध निकलती है। तेरा दर्शन वैसा ही है, जैसा मुर्दे का दिखना। तू देखने में मंगलमय है; पंरतु है अमंगलरूप। वास्तव में तू मर चूका; पंरतु जीवित की भांति घूम रहा है। ‘तू ब्राह्मण की मृत्यु का कारण है। तेरा अन्त:करण नितान्त अशुद्ध है। तू पाप की ही बात सोचता हुआ जागता और सोता है और इसी से अपने को परम सुखी मानता है। ‘राजन्! तेरा जीवन व्यर्थ और अत्यन्त क्लेशमय है। तू पाप के लिये ही पैदा हुआ है। खोटे कर्म के लिये ही तेरा जन्म हुआ है। माता-पिता तपस्या, देवपूजा, नमस्कार और सहनशीलता या क्षमा आदि के द्वारा पुत्र प्राप्त करना चाहते हैं और प्राप्त हुए पुत्रों से परम कल्याण पाने की इच्छा रखते हैं। ‘परंतु तेरे कारण तेरे पितरों का यह समुदाय नरक में पड़ गया है। तू आंख उठाकर उनकी दशा देख ले। उन्होंने तुझसे जो जो आशाएं बांध रखी थी, उनकी वे सभी आशाएं आज व्यर्थ हो गयीं। ‘जिनकी पूजा करने वाले लोग स्वर्ग, आयु, यश और संतान प्राप्त करते हैं। उन्हीं ब्राह्मणों से तू सदा द्वेष रखता है। तेरा जीवन व्यर्थ है। ‘इस लोक छोड़ने के बाद तू अपने पापकर्म के फलस्वरूप अनन्त वर्षों तक नीचा सिर किये नरक में पड़ा रहेगा। ‘वहां लोहे के समान चोंचवाले गीध और मोर तुझे नोच–नोचकर पीड़ा देंगे और उसके बाद भी नरक से लौटने पर तुझे किसी पापयोनि में ही जन्म लेना पडे़गा। ‘राजन्! तू जो यह समझता है कि जब इसी लोक में पाप का फल नहीं मिल रहा है, तब परलोक का तो अस्तित्व ही कहां है? सो इस धारणा के विपरित यमलोक में जाने पर यमराज के दूत तुझे इन सारी बातों की याद दिला देंगे।
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