महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 160 श्लोक 1-18

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षष्‍टयधिकशततम (160) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: षष्‍टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

मन और इन्द्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य

युधिष्ठिर ने पूछा- धर्मात्मा पितामह! जो स्वाध्‍याय के लिये यत्नशील है और धर्म पालन की इच्‍छा रखता है, उस मनुष्‍य के लिये इस संसार में श्रेय क्‍या बताया जाता है? पितामह! जगत् में श्रेय का प्रतिपादन करने वाले अनेक प्रकार दर्शन (मत) है; परंतु आप जिसे श्रेय मानते हों, जो इस लोक और परलोक में भी कल्‍याण करने वाला हो, उसे मुझे बताइये। भारत! धर्म का यह मार्ग बहुत बड़ा है। इससे बहुत सी शाखाएं निकली हुई हैं। इन धर्मों में से कौनसा धर्म सर्वोतम, अवश्‍य पालन करने योग्य माना गया है? राजन्! बहुत–सी शाखाओं से युक्‍त इस महान् धर्म का वास्तव में परम मूल क्‍या है? तात! ये सब बातें मुझे पूर्ण रूप से बताइये। भीष्‍मजी ने कहा- युधिष्ठिर! मैं बडे़ हर्ष के साथ तुम्‍हें वह उपाय बताता हूं, जिससे तुम कल्‍याण प्राप्‍त कर लोगे। जैसे अमृत को पीकर पुर्ण तृप्ति हो जाती है, उसी प्रकार तुम ज्ञानी होकर इस ज्ञान-सुधा से पूर्णत: तृप्त हो जाओगे। महर्षियों ने अपने–अपने ज्ञान के अनुसार धर्म की एक नहीं, अनेक विधियां बतायी हैं, परंतु उन सबका आधार दम (मन और इन्द्रियों का संयम) ही है। धर्म के सिद्धान्त को जानने वाले वृद्ध पुरूष दम को नि:श्रेयस (परम कल्‍याण) का साधन बताते हैं। विशेषत: ब्राह्मण के लिये तो दम ही सनातन धर्म है। दम से ही उसे अपने शुभ कर्मों की यथावत् सिद्धि प्राप्‍त होती है। दम उसके लिये दान, यज्ञ और स्‍वाध्‍याय से बढ़कर है। दम तेज की वृद्धि करता है, दम परम पवित्र साधन है, दम से पापरहित हुआ तेजस्‍वी पुरूष परमपद को प्राप्‍त कर लेता है। हमने संसार में दम के समान दूसरा कोई धर्म नहीं सुना। जगत् में सभी धर्मवालों के यहां दम को उत्‍कृष्‍ट बताया गया है। सबने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। नरेन्‍द्र! दम से अर्थात् इन्द्रिय और मन के संयम से युक्‍त पुरूष को महान् धर्म की प्राप्‍ति होती है। वह इहलोक और परलोक में भी परम सुख पाता है। जिसने अपनेमन और इन्द्रियों का दमन कर लिया है, वह सुख से सोत, सुख से ही जागता और सुखपूर्वक ही लोकों में विचरता है। उसका मन सदा प्रसन्‍न रहता है। जिसकी इन्द्रियां और मन वश में नहीं है, वह पुरूष निरंतर क्‍लेश उठाता है। साथ ही वह अपने ही दोषों से बहुत–से दूसरे–दूसरे अनर्थेां की भी सृष्टि कर लेता है। चारों आश्रमों में दम को ही उत्‍तम व्रत बताया गया है। अब मैं इन्द्रिय–दमन एवं मनोनिग्रह के उन लक्षणों को बताऊंगा, जिनका उदय होना ही दम कहा गया है। क्षमा, धीरता, अहिंसा, समता, सत्‍य‍वादिता, सरलता, इन्द्रिय–विजय, दक्षता, कोमलता, लज्‍जा, स्थिरता, उदारता, क्रोधहीनता, संतोष, प्रिय वचन बोलने का स्‍वभाव, किसी भी प्राणी को कष्‍ट न देना और दूसरों के दोष न देखना-इन सद्गुणों का उदय होना ही दम कहलाता है। कु्रूनन्‍दन! जिसने मन और इन्द्रियों का दमन कर लिया है, उसमें गुरूजनों के प्रति आदर का भाव, समस्‍त प्राणियों के प्रति दया और किसी की भी चुगली न करने की पवृति होती है। वह जनापवाद, असत्‍य भाषण, निंदा–स्‍तुति की प्रवृति, काम, क्रोध, लोभ, दर्प, जडता, डींग, हांकना, रोष, ईर्ष्‍या और दूसरों का अपमान–इन दुर्गुणों का कभी सेवन नहीं करता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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