महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 165 श्लोक 62-78

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पञ्चषष्‍टयधिकशततम (165) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: पञ्चषष्‍टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 62-78 का हिन्दी अनुवाद

जो अपने श्रेष्‍ठ पति को छोड़कर अन्य पापी की शय्यापर जाती है, उस कुलटा को अत्यन्त विस्तृत मैदान में खडी़ करके राजा कुत्‍तों से नोचवा डाले। इसी तरह व्यभिचारी पुरूष को बुद्धिमान राजा लोहे की तपायी हुई खाटपर सुलाकर ऊपर से लकडी़ रख दे और आग लगा दे, जिससे वह पापी उसी में जलकर भस्म हो जाय। महाराज! पति की अवहेलना करके पर पुरूषों से व्यभिचार करने वाली स्त्रियों के लिये भी यही दण्‍ड है, उपर्युक्‍त कहे हुए मे जिन दुष्‍टों के लिये प्रायश्चित बताया है, उनके लिये यह भी विधान है कि एक वर्ष के भीतर प्रायश्चित न करने पर दुष्‍ट पुरूष को दूना दण्‍ड प्राप्‍त होना चाहिये। जो मनुष्‍य दो, तीन, चार या पांच वर्षों तक उस पतित पुरूष के संसर्ग में रहें, वह मुनिजनोचित व्रत धारण करके उतने ही वर्षों तक पृथ्‍वीपर घूमता हुआ भिक्षावृति से जीवन–निर्वाह करे। ज्येष्‍ठ भाई का विवाह होने से पहले ही यदि छोटा भाई अधर्मपूर्वक विवाह कर ले तो ज्येष्‍ठ को ‘परिविति’ कहते हैं; छोटे भाई को ‘परिवेता’ कहते हैं और उसकी पत्नी को जिसका परिवेदन (ग्रहण) किया जाता है, परिवेदनीया कहते हैं-ये सब–के-सब पति‍त माने गये हैं। इन तीनों को पृ‍थक्–पृथक् अपनी शुद्धि के लिये उसी व्रत का आचरण करना चाहिये जो यज्ञहीन ब्राह्मण के लिये बताया गया है। अथवा एक मासतक चान्द्रायण या कृच्छ्रचान्द्रायण व्रत करे। परिवेता पुरूष उस नववधू को पतोहू के रूप में ज्येष्‍ठ भाई को सौंप दे और ज्येष्‍ठ भाई की आज्ञा मिलने पर छोटा भाई उसे पत्नीरूप में ग्रहण करें। ऐसा करने पर वे तीनों धर्म के अनुसार पाप से छुटकारा पाते हैं। पशु जातियों में गौओं को छोड़कर अन्य किसी की अनजान में हिंसा हो जाय तो वह दोषावह नहीं मानी जाती; क्योंकि मनुष्‍य को पशुओं का अधिष्‍ठाता एवं पालक माना गया है। गोवध करने वाला पापी उस गाय की पूंछ को इस प्रकार धारण करे कि उसका बाल ऊपर की ओर रहे। फिर मिट्टी का पात्र हाथ में लेकर प्रतिदिन सात घरों में भिक्षा मांगे और अपने पापकर्म की बात कहकर लोगों को सुनाता रहे। उन्हीं सात घरों की भिक्षा में जो अन्न मिल जाय, वही खाकर रहे। ऐसा करने से वह बारह दिनों में शुद्ध हो जाता है। यदि पाप अधिक हो तो एक वर्ष तक उस व्रत का अनुष्‍ठान करे, जिससे वह अपने पाप को नष्‍ट कर देता है। इस प्रकार मनुष्‍यों के लिये परम उत्‍तम प्रायश्चित का विधान है। उनमें जो दान करने में समर्थ हों, उनके लिये दान की भी विधि है। यह सब प्रायश्चित विचार पूर्वक करना चाहिये। अनास्तिक पूरूषों के लिये एक गोदानमात्र ही प्रायश्चित बतलाया गया है। कुत्‍ते, सूअर, मनुष्‍य, मुर्गे और गदहे के मांस और मल–मूत्र खा लेने पर द्विजका पुन: संस्कार होना चाहिये। सोमपान करनेवाला ब्राह्मण यदि किसी शराबी की गन्ध भी सूंघ ले तो वह तीन दिनों तक गरम जल पीकर रहे, फिर तीन दिन गरम दूध पीये। तीन दिन गरम दूध पीने के बाद तीन दिन तक केवल वायु पीकर रहे। इससे वह शुद्ध हो जाता है। इस प्रकार यह सनातन प्रायश्चित सब के लिये बताया गया है। ब्रह्मण के लिये इसका विशेषरूप से विधान है। अनजान में जो पाप बन जाय, उसी के लिये प्रायश्चित है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत आपद्धर्मपर्व में पापों के प्रायश्चित की विधिविषयक एक सौ पैंसठवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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