महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 169 श्लोक 1-17
एकोनसप्तत्यधिकशततम (169) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान और संध्या के समय एक दिव्य बकपक्षी के घरपर अतिथि होना
भीष्म जी कहते हैं- भारत! जब रात बीती, सबेरा हुआ और वह श्रेष्ठ ब्राह्मण वहां से चला गया, तब गौतम भी घर छोड़कर समुद्र की ओर चल दिया। रास्ते में उसने देखा कि समुद्र के आस –पास रहने वाले कुछ व्यापारी वैश्य ठहरे हुए हैं । वह उन्हीं के दल के साथ हो लिया और समुद्र की ओर जाने लगा। राजन्! वैश्योंका वह महान् दल किसी पर्वतकी गुफा में डेरा डाले हुए था । इतने ही में एक मतवाले हाथी ने उसपर आक्रमण कर दिया। उस दल के अधिकांश मनुष्य उसके द्वारा मारे गये। गैातम ब्राह्मण किसी तरह उस भय से छूट तो गया; परंतु उस घबराहट में वह यह निर्णय न कर सका कि मुझे किस दिशा में जाना है? अपने प्राण बचाने के लिये वह उत्तर दिशा की ओर भाग चला। व्यापारियों के दल का साथ छूट गया, अत: उस देश से भी भ्रष्ट होकर वह अकेला ही उस वन में विचरने लगा; मानो कोई किंपुरूष घूम रहा हो। उस समय समुद्र की ओर जाने वाला एक मार्ग उसे मिल गया ओर उसी को पकड़कर वह दिव्य एवं रमणीय वन में जा पहुंचा। वहां के सभी वृक्ष सुंदर फूलों से सुशेाभित थे। सभी ॠतुओं में फूलने–फलने वाली आम्रवृक्षों की पंक्तियॉ उस वन की शोभा बढा़ रही थीं। यक्षों और किन्नरों से सेवित वह प्रदेश नन्दनवन के समान मनोरम जान पड़ता था। शाल, ताल, तमाल, काले अगुरू के वन तथा श्रेष्ठ चंदन के वृक्ष उस वन को सुशोभित करते थे। वहां के रमणीय और सुगन्धित पर्वतीय समतल प्रदेशों में चारों ओर उत्तमत्तम पक्षी कलरव कर रहे थे। कहीं मनुष्यों के समान मुखवाले ‘भारूण्ड’ नामक पक्षी बोलते थे। कहीं समुद्रतट और पर्वतों पर रहने वाले भूलिङग् पक्षी तथा अन्य विहंगम चहचहा रहे थे। पक्षियों के उन मधुर मनोहर एवं रमणीय कलरवों को सुनता हुआ गौतम ब्राह्मण आगे बढ़ता चला गया। नरेश्वर! तदनन्तर उन रमणीय प्रदेशों में से एक ऐसे स्थान पर जो सुवर्णमयी बालुकाराशिसे व्याप्त, समतल, सुखद, विचित्र तथा स्वर्गीय भूमि के समान मनोहर था, गौतम ने एक अत्यंत शोभायमान बरगद का विशाल वृक्ष देखा, जो चारों ओर मण्डलाकार फैला हुआ था। अपनी बहुत-सी सुंदर शाखाओं के कारण वह वृक्ष एक महान् छत्र के समान जान पड़ता था। उसकी जड़ चन्दनमिश्रित जल से सींची गयी थी । ब्राह्माजी की सभा के समान शोभा पाने वाला वह वृक्ष दिव्य पुष्पों से सुशोभित था। उस परम उत्तम मनोरम वटवृक्ष को देखकर गौतम को बड़ी प्रसन्नता हुई। वह पवित्र, देवगृह के समान सुंदर और खिले हुए वृक्षों से घिरा हुआ था। उस वृक्ष के पास जाकर वह बडे़ हर्ष के साथ उसके नीचे छाया में बैठा। कुन्तीनंदन! गौतम के वहां बैठते ही फूलों का स्पर्श करके सुदंर-मंद–सुगंध वायु चलने लगी, जो बड़ी ही सुखद और कल्याणप्रद जान पड़ती थी। नरेश्वर! वह गौतमके सम्पूर्ण अग्ङोंको आहाद प्रदान कर रही थी। उस पवित्र वायु का स्पर्श पाकर गौतम को बड़ी शांति मिली। वह सुख का अनुभव करता हुआ वहीं लेट गया। उधर सूर्य भी डूब गया।
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