महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 176 श्लोक 16-23
षट्सप्तत्यधिकशततम (176) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
‘सदा धन–सम्पत्ति का सहवास मूर्ख मनुष्य के चित को लुभाकर उसे मोह में ही डाले रहता है। जैसे वायु शरद्–ॠतु के बादलों को उड़ा ले जाती है, उसी प्रकार वह सम्पत्ति मनुष्य के मन को हर लेती है। ‘फिर उसके ऊपर रूप का अहंकार और धन का मद सवार हो जाता है और वह ऐसा मानने लगता है कि मैं बड़ा कुलीन हूं, सिद्ध हूं, कोई साधारण मनुष्य नहीं हूं। ‘रूप, धन और कुल–इन तीनों के अभिमान के कारण उसके चित में प्रमाद भर जाता है। वह भोगों में आसक्त होकर बाप–दादों के जोडे़ हुए पैसों को खो बैठता है और दरिद्र होकर दूसरों के धन को हड़प लाना अच्छा मानने लगता है। ‘इस तरह मर्यादा का उल्लंघन करके जब वह इधर–उधर लूट–खसोटकर धन ले आता है, तब राजा उसे उसी प्रकार कठोर दण्ड देकर रोकते हैं। जैसे व्याध बाणों से मारकर मृगों की गति रोक देते हैं। ‘इस प्रकार मन को तप्त करने वाले और शरीर के स्पर्श से होने वाले ये नाना प्रकार के दुख मनुष्य को प्राप्त होते हैं। ‘अत: अनित्य शरीरों के साथ सदैव लगे रहने वाले पुत्रैषणा आदि लोकधर्मों की अवहेलना करके अवश्य प्राप्त होने वाले पूर्वोक्त महान दुखों की विचरतापूर्वक चिकित्सा करनी चाहिये। ‘कोई मनुष्य त्याग किये बिना सुख नहीं पाता, त्याग किये बिना परमात्मा को नहीं पा सकता और त्याग किये बिना निर्भय सो नहीं सकता। इसलिये तुम भी सब कुछ त्यागकर सुखी हो जाओ’। इस प्रकार पूर्वकाल में शम्पाक नामक ब्राह्माण ने हस्तिनापुर में मुझसे त्याग की महिमा का वर्णन किया था। अत: त्याग ही सबसे श्रेष्ठ माना गया है।
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