महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 182 श्लोक 17-33
द्वयशीत्यधिकशततम (182) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
पर्वत उनकी हड्डियां हैं, पृथ्वी उनका मेद और मांस है। समुद्र उनका रूधिर है और आकाश उदर है। वायु नि:श्वास है, अग्नि तेज है, नदियां नाड़ियां हैं, सूर्य और चन्द्रमा जिन्हें अग्नि और सोम भी कहते हैं, ब्रह्माजी के नेत्रों के रूप में प्रसिद्ध हैं। आकाश का ऊपरी भाग उनका सिर है, पृथ्वी पैर है और दिशाएं भुजाएं हैं। वे अचिन्त्यस्वरूप ब्रह्मा सिद्ध पुरूषों के लिये भी दुर्विज्ञेय हैं, इसमें संशय नहीं है। वह स्वयम्भू ही भगवान विष्णु हैं, जो अनन्त नाम से प्रसिद्ध हैं, वे ही सम्पूर्ण भूतों के अन्त:करण में अन्तर्यामी आत्मा के रूप में विघमान हैं। जिनका हृदय शुद्ध नहीं है, उनके लिये इनके स्वरूप को ठीक–ठीक जानना बहुत कठिन है। वे ही सम्पूर्ण भूतों की उत्पति के लिये प्राकृत अहंकार की सृष्टि करने वाले हैं। तुमने मुझसे जो पूछा था कि इस विश्व की उत्पत्ति किससे हुई है, वह सब मैंने तुम्हें बता दिया। भरद्वाज ने पूछा- प्रभो! आकाश, दिशा, पृथ्वी और वायु का कितना–कितना परिमाण है? यह ठीक–ठीक बताकर मेरा संशय दूर कीजिये। भृगुजी ने कहा- मुने! यह आकाश तो अनन्त है, इसमें अनेकानेक सिद्ध और देवता निवास करते हैं। इसमें उनके भिन्न–भिन्न लोक भी स्थित हैं। यह बड़ा ही रमणीय है और इतना महान् है कि कहीं इसका अन्त नहीं मिलता। ऊपर तथा नीचे जाने से जहां सूर्य और चन्द्रमा नहीं दिखायी देते, वहां सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी देवता स्वयं अपने प्रकाश से ही प्रकाशित होते हैं। मानद! परंतु वे तेजस्वी नक्षत्रस्परूप देवता भी इस आकाश का अंत नहीं देख पाते; क्योंकि यह दुर्गम और अन्नत है, यह बात तुम्हें मेरे मुख से सुनकर अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये। ऊपर–ऊपर प्रकाशित होने वाले स्वयंप्रकाश देवताओं से यह अप्रमेय आकाश भी भरा हुआ–सा प्रतीत होता है । पृथ्वी के अंत में समुद्र हैं। समुद्र के अंत में घोर अंधकार है। अंधकार के अंत में जल है और जल के अंत में अग्नि की स्थिति बतायी गयी है। रसातल के अंत में जल है। जल के अंत में नागराज शेष हैं। उनके अंत में पुन: आकाश और आकाशके ही अंतभाग में पुन: जल है। इस प्रकार भगवान का, आकाश का, जल का तथा अग्नि और वायु का भी अंत और परिमाण जानना देवताओं के लिये भी अत्यंत कठिन है। अग्नि, वायु, जल और पृथ्वी- इनके रंग–रूप आकाश से ही गृहित होते है; अत: उससे भिन्न नहीं है। तत्त्वज्ञान न होने से ही उनमें भेद की प्रतीति होती है। ॠषियों ने विविध शास्त्रों में तीनों लोकों और समुद्रों के विषय में तो कुछ निश्चित प्रमाण बताया भी है; परंतु जो दृष्टि से परे हैं और जहां तक इन्द्रियों की पहुंच नहीं है, उस परमात्मा का परिमाण कोई कैसे बतायेगा? आखिर इन सिद्धों और देवताओं का ज्ञान भी तो परिमित ही है। अत: परमात्मा मानसदेव अपने नाम के अनुरूप ही अनन्त हैं। उनका सुप्रसिद्ध अनन्त नाम उनके गुण के अनुसार ही है।
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