महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 183 श्लोक 1-17
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त्रयशीत्यधिकशततम (183) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पति का वर्णन
भरद्वाज ने पूछा- द्विजश्रेष्ठ! मेरूपर्वत के मध्यभाग में स्थित होकर ब्राह्माजी नाना प्रकार की प्रजासृष्टि कैसे करते हैं, यह मुझे बताइये? भृगुने कहा- उन मानसदेव ने अपने मानसिक संकल्प से ही नाना प्रकार की प्रजासृष्टि की है। उनहोंने प्राणियों की रक्षा के लिये सबसे पहले जल की सृष्टि की । वह जल समस्त प्राणियों का जीवन है । उसी से प्रजा की वृद्धि होती है। जल के न मिलने से प्राणी नष्ट हो जाते हैं। उसी ने इस सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त कर रखा है। पृथ्वी, पर्वत, मेघ तथा अन्य जो मूर्तिमान् वस्तुएं हैं, उन सबको जलमय समझना चाहिये; क्योंकि जलने ही उन सबको स्थिर कर रखा है। भरद्वाज ने पूछा- भगवन्! जल की उत्पति कैसे हुई? अग्नि और वायु की सृष्टि किस प्रकार हुई तथा पृथ्वी की भी रचना कैसे की गयी, इस विषय में मुझे महान् संदेह है। भृगुने कहा- ब्रह्मन्! पूर्वकाल में जब ब्रह्मकल्प चल रहा था, उस समय ब्रह्मर्षियों का परस्पर समागम हुआ। उन महात्माओं की उस सभा में लोकसृष्टिविषयक संदेह उपस्थित हुआ। वे ब्रह्मर्षि भोजन छोड़कर वायु पीकर रहते हुए सौ दिव्य वर्षों तक ध्यान लगाकर मौन का आश्रयले निश्चल भाव से बैठे रह गये। उस ध्यानावस्था में उन सबके कानों में ब्रह्ममयी वाणी सुनायी पड़ी । उस समय वहां आकाश से दिव्य सरस्वती प्रकट हुई थी। वह आकाशवाणी इस प्रकार है- ‘पूर्वकाल में अनन्त आकाश पर्वत के समान निश्चल था। उसमें चन्द्रमा, सूर्य अथवा वायु किसी के दर्शन नहीं होते थे ।वह सोया हुआ–सा जान पड़ता था। ‘तदनंतर आकाश से जल की उत्पति हुई; मानो अंधकार में ही दूसरा अंधकार प्रकट हुआ हो। उस जलप्रवाह से वायु का उत्थान हुआ। ‘जैसे कोई छिद्ररहित पात्र नि:शब्द–सा लक्षित होता है; परंतु जब उसमें छिद्र करके जल भरा जाता है, तब वायु उसमें आवाज प्रकट कर देती है। ‘इसी प्रकार जल से आकाश का सारा प्रांत ऐसा अवरूद्ध हो गया था कि उसमें कहीं थोड़ा–सा भी अवकाश नहीं था। तब उस एकार्णव के तलप्रदेश का भेदन करके बड़ी भारी आवाज के साथ वायु का प्राकटय हुआ। ‘इस प्रकार समुद्रके जलसमुदाय से प्रकट हुई यह वायु सर्वत्र विचरने लगी और आकाश के किसी भी स्थान में पहुंचकर वह शांत नहीं हुई । ‘वायु और जल के उस संघर्ष से अत्यंत तेजोमय महाबली अग्निदेव का प्राकटय हुआ, जिनकी लपटें ऊपर की ओर उठ रही थीं । वह आग आकाश के सारे अंधकार को नष्ट करके प्रकट हुई थी। ‘वायु का संयोग पाकर अग्नि जल को आकाश में उछालने लगी; फिर वही जल अग्नि और वायु के संयोगसे घनीभूत हो गया। ‘उसका जो वह गीलापन आकाश में गिरा, वही घनीभूत होकर पृथ्वी के रूप में परिणत हो गया । ‘इस पृथ्वी को सम्पूर्ण रसों, गंधों, स्नेहों तथा प्राणियों का कारण समझना चाहिये। इसी से सबकी उत्पति होती है ‘।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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