महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 184 श्लोक 35-44

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चतुरशीत्‍यधिकशततम (184) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चतुरशीत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 35-44 का हिन्दी अनुवाद

वायु के दो गुण जानने चा‍हिये-शब्‍द और स्पर्श। वायु का प्रमुख गुण स्पर्श ही है, जिसके अनेक भेद माने गये हैं- उष्‍ण, शीत, सुख, दु:ख, स्निग्‍ध, विशद, खर, मृदु, रूक्ष, हलका, भारी और अधिक भारी-इस प्रकार वायु–सम्बन्धी स्पर्श गुण के बारह भेद कहे जाते हैं। आकाश का एकमात्र गुण शब्‍द ही माना गया है। उस शब्‍द गुण का अनेक भेदों में जो विस्तार हुआ है, उसका वर्णन करता हूं-षड्ज, ॠषभ, गान्धार, मध्‍यम, पंचम, धैवत तथा निषाद- ये आ‍काशजनित शब्‍द गुण के सात भेद बताये गये हैं, जिन्हें जानना चाहिये। अपने व्यापक स्वरूप से तो शब्‍द सर्वत्र है, किंतु पटह (नगाडे़) आदि में इसकी विशेष रूप से अभिव्यक्ति होती है। मृदंग, भेरी, शंख, मेघ तथा रथ की घर्घराहट आदि में जो कुछ शब्‍द सुना जाता है और जड या चेतन का जो कुछ भी शब्‍द श्रवणगोचर होता है, वह सब इन सात भेदों के ही अन्तर्गत बताया गया है। इस प्रकार आकाशजनित शब्‍द के अनेक भेद हैं। वायुसम्बन्धी गुणों के साथ ही आकाशजनित शब्‍द होता है; ऐसा विद्वान् पुरूष कहते हैं। जब वायुसम्बन्धी गुण बाधित न होकर शब्‍द के साथ रहता है, तब मनुष्‍य शब्‍द को सुनता और समझता है; किंतु जब वायुसम्बन्धी गुण दीवार अथवा प्रतिकुल वायु से बाधित होकर विषम अवस्था में स्थित हो जाते हैं, तब शब्‍द का ग्रहण नहीं होता है। वे शब्‍द आदि के उत्पादक धातु (‍इन्द्रियगोलक) धातुओं (इन पॉचों भूतों) द्वारा ही पोषित होते हैं । जल, अग्नि और वायु-ये तीन तत्‍त्‍व सदा देहधारियों में जाग्रत् रहते हैं। ये ही शरीर के मूल हैं और प्राणों में ओत–प्रोत होकर शरीर में स्थित रहते हैं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में भृगु–भरद्वाजसंवादविषयक एक सौ चौरासीवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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