महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 190 श्लोक 1-10

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नवत्यधिकशततम (190) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: नवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद

सत्य की महिमा, असत्य के दोष तथा लोक और परलोक के सुख–दु:ख का विवेचन

भृगुजी कहते हैं- मुने! सत्य ही ब्रह्म है, सत्य ही तप है, सत्य ही प्रजा की सृष्टि करता है, सत्य के ही आधार पर संसार टिका हुआ है और सत्य के ही प्रभाव से मनुष्य स्वर्ग में जाता है। असत्य अन्धकार का रूप है। वह मनुष्‍य को नीचे गिराता है। अज्ञानान्धकार से घिरे हुए मनुष्‍य तमोगुण से ग्रस्त होकर ज्ञान के प्रकाश को नहीं देख पाते हैं। स्वर्ग प्रकाशमय है और नरक अन्धकारमय है, ऐसा कहते हैं। सत्य और अनृत से युक्‍त जो मानव–योनि है, वह ज्ञान और अज्ञान दोनों के सम्मिश्रण से जगत् के जीवों को प्राप्त होती है। उसमें भी लोक में ऐसी वृत्ति जाननी चाहिये, जो सत्य और अनृत हैं, वे ही धर्म और अधर्म, प्रकाश और अन्धकार तथा दु:ख और सुख हैं। वहां जो सत्य है, वही धर्म है, जो धर्म है वही प्रकाश है और जो प्रकाश है, वही सुख है। इसी प्रकार वहां जो अनृत अर्थात् असत्य है, वही अधर्म है और जो अधर्म है, वही अन्धकार है और जो अन्धकार है, वही दु:ख है। इस विषय में ऐसा कहा जाता है- संसार की सृष्टि शारीरिक और मानसिक क्लेशों से युक्‍त है। इसमें जो सुख हैं, वे भी अन्त में दु:ख ही उत्पन्न करने वाले हैं। ऐसी दृष्टि रखने वाले विद्वान् पुरूष कभी मोह में नहीं पड़ते हैं। अत: विज्ञ एवं बुद्धिमान मनुष्‍य को चाहिये कि सदा दु:ख से छूटने के लिये प्रयत्न करे। इहलोक और परलोक में भी प्राणियों को जो सुख मिलता है, वह अनित्य है। जैसे राहु से ग्रस्त होने पर चन्द्रमा की चांदनी प्रकाश में नहीं आती, उसी प्रकार तम (अज्ञान एवं दु:ख) से पीड़ि‍त हुए प्राणियों का सुख नष्‍ट हो जाता है। सुख दो प्रकार का बताया जाता है- शारीरिक और मानसिक। इहलोक और परलोक में जो वस्तुओं की प्राप्ति के लिये प्रवृतियां हैं, वे सुख के लिये ही बतायी जाती हैं। इस सुख से बढ़कर त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) का और कोई अत्यन्त विशिष्‍ट फल नहीं है। वह सुख ही प्राणी का वाञ्छनीय गुण विशेष है। धर्म और अर्थ जिसके अंग हैं, उस सुख के लिये ही कर्मों का आरम्‍भ किया जाता है; क्योंकि सुख की उत्पत्ति में उघम ही हेतु हैं; अत: सुख के उद्देश्‍य से ही कर्मों का आरम्‍भ किया जाता है। भरद्वाज ने पूछा- प्रभों! आपने जो यह बताया है कि सुखों का ही सबसें ऊंचा स्‍थान है- सुख से बढ़कर त्रिवर्ग का और कोई फल नहीं है, आपकी यह बात हमारे मन में ठीक नहीं जंचती है; क्‍योंकि जो महान् तपमें स्थित ॠषिगत हैं, उनके लिये यह वाञ्छनीय गुण विशेष सुख यघपि प्राप्‍त हो सकताहै, तो भी वे इसे नहीं चाहते हैं। सुना जाता है कि तीनों लोकों की सृष्टि करने वाले भगवान ब्रह्मा अकेले ही रहते हैं, ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं और कामसुख में कभी मन नहीं लगाते हैं। भगवती उमाके प्राणवल्‍लभ भगवान विश्‍वनाथ ने भी अपने सामने आये हुए काम को जलाकर शांत कर दिया और उसे अनंग बना दिया; इसलिये हम कहते हैं कि महात्‍मा पुरूषों ने कभी इसे स्‍वीकार नहीं किया है । उनके लिये यह कामसुख अर्थात् सांसारिक भोगों का सुख सबसें बढ़कर सुखविशेष नहीं है; परंतु आपकी बातों से मुझे ऐसी प्रतीति नहीं हेाती है। आपने तो यह कहा है कि इस सुख से बढ़कर दूसरा कोई फल नहीं है । लोक में ऐसा कहा जाता है कि फल कि उत्‍पत्ति दो प्रकार की होती है । पुण्‍यकर्म से सुख प्राप्‍त होता है और पापकर्म से दु:ख।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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