महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 194 श्लोक 46-60
चतुर्नवत्यधिकशततम (194) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
जो सांसारिक कर्मों का परित्याग करके सदा अपने–आपमें ही अनुरक्त रहता है, वह मननशील मुनि सम्पूर्ण भूतों का आत्मा होकर परम गति को प्राप्त होता है। जैसे जलचर पक्षी जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार विशुद्धबुद्धि ज्ञानी पुरूष निर्लिप्त रहकर ही सम्पूर्ण भूतों में विचरता है। यह आत्मतत्त्व ऐसा ही निर्लिप्त एवं शुद्ध–बुद्धिस्वरूप है- ऐसा अपनी बुद्धि के द्वारा निश्चय करके ज्ञानी पुरूष हर्ष, शोक और मात्सर्य– दोष से रहित हो सर्वत्र समानभाव रखते हुए विचरे। आत्मा अपने स्वरूप में स्थित रहकर ही सदा गुणों की सृष्टि करता है । ठीक उसी तरह, जैसे मकड़ी अपने स्वरूप में स्थित रहती हुई ही जाला बनाती है। मकड़ी के जाले के ही समान समस्त गुणों की सत्ता समझनी चाहिये। आत्मसाक्षत् हो जाने पर गुण नष्ट हो जाते हैं तो भी सर्वथा निवृत्त नहीं होते हैं; क्योंकि उनकी निवृत्ति प्रत्यक्ष नहीं देखी जाती है। जो परोक्ष वस्तु है उसकी सिद्धि अनुमान से होती है। एक श्रेणी के विद्वानों का ऐसा ही निश्चय है । दूसरे लोग यह मानते हैं कि गुणों की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है । इन दोनों मतोपर भलीभांति विचार करके अपनी बुद्धि के अनुसार यथार्थ वस्तु का निश्चय करना चाहिये। बुद्धि के द्वारा कल्पित हुआ जो भेद है, वही हृदय की सुदृढ़ गांठ है । उसे खेालकर संश्यरहित हो ज्ञानवान् पुरूष सुख से रहे, कदापि शोक न करे। जैसे मैले शरीरवाले मनुष्य जल से भरी हुई नदी में नहा–धोकर साफ–सुथरे हो जाते हैं, उसी प्रकार इस ज्ञानमयी नदी में अवगाहन करके मलिनचित्त मनुष्य भी शुद्ध एवं ज्ञानसम्पन्न हो जाते हैं- ऐसा जानो । किसी महानदी के पारको जानने वाला पुरूष केवल जानने मात्र से कृतकृत्य नहीं होता; जब तक वह नौका आदि के द्वारा वहां पहुंच न जाय, तब तक वह चिंता से संतप्त ही रहता है। परंतु तत्त्वज्ञ पुरूष ज्ञानमात्र से ही संसार–सागर से पार हो जाता है; उसे संताप नहीं होता। क्योंकि यह ज्ञान स्वयं ही पुलस्वरूप। जो मनुष्य बुद्धि से जीवों के इस आवागमन पर शनै:–शनै: विचार करके उस विशुद्ध एवं उत्तम आध्यात्मिक ज्ञानको प्राप्त कर लेता है, वह परम शांति पाता है। जिसे धर्म, अर्थ और काम- इन तीनों का ठीक–ठीक ज्ञान है, जो खूब सोच-समझकर उनका परित्याग कर चुका है और जिसने मन के द्वारा आत्मतत्तव का अनुसंधान करके योगयुक्त हो आत्मा से भिन्न वस्तु के लिये उत्सुकता का त्याग कर दिया है, वही तत्तवदर्शी है। जिन्होंने अपने मन को वशमें नहीं किया है, वे भिन्न–भिन्न विषयों की ओर प्रेरित हुई दुर्निवार्य इन्द्रियों द्वारा आत्मा का साक्षात्कार नहीं कर सकते। यह जानकर मनुष्य ज्ञानी हो जाता है। ज्ञानी का इसके सिवा और लक्षण है ? क्योंकि मनीषी पुरूष उस परमात्मतत्त्व को जानकर ही अपने को कृतकृत्य मानते हैं। अज्ञानियों के लिये जो महान् भय का स्थान हैं, उसी संसार से ज्ञानी पुरूषों को भय नहीं होता। ज्ञान होने पर सबको एक-सी ही गति (मुक्ति) प्राप्त होती है। किसी को उत्कृष्ट या निकृष्ट गति नहीं मिलती; क्योंकि गुणों का संबंध रहने पर ही उनके तारतम्य के अनुसार प्राप्त होने वाली गति में भी असमानता बतायी जाती है (ज्ञानी का गुणों से संबंध नहीं रहता।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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