महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 199 श्लोक 1-17

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नवनवत्‍यधिकशततम (199) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: नवनवत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

  जापक को सावित्रि का वरदान, उसके पास धर्म,यम और काल आदि का आगमन राजा इक्ष्‍वाकु और जापक ब्राह्राण का संवाद, सत्‍य की महिमा तथा जापक की परमगति का वर्णन   युधिष्ठिर ने पूछा – पितामह ! आपने काल, मृत्‍यु, यम, इक्ष्‍वाकु और ब्राह्राण के विवाद के पहले चर्चा की थी; अत: उसे बताने की कृपा करें। भीष्‍मजी ने कहा – युधिष्ठिर ! इसी प्रसंग में उस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, जिसमें राजा इक्ष्‍वाकु, सूर्यपुत्र यम, ब्राह्राण, काल और मृत्‍यु के वृतान्‍त का उल्‍लेख हैं। जिस स्‍थानपर और जिस रूप में उनका वह संवाद हुआ था, उसे बताता हॅू, मुझसे सुनो। कहते है कि हिमालय पर्वत के निकटवर्ती पहाडि़यों पर एक महायशस्‍वी धर्मात्‍मा ब्राह्राण रहता था, जो वेदके छहों अंगो का ज्ञाता, परम बुद्धिमान तथा जप में तत्‍पर रहनेवाला था । वह पिप्‍पलाद का पुत्र था और कौशिक वंश में उसका जन्‍म हुआ था। वेद के छहों अंगों का विज्ञान उसे प्रत्‍यक्ष हो गया था, अत: वेदों का पांरगत विद्वान उसे प्रत्‍यक्ष हो गया था, अत- वह वेदों का पारंगत विद्वान् था। वह अर्थज्ञानपूर्वक संहिता का जप करता हुआ इन्द्रियों को संयम में रखकर ब्राह्राणोचित तपस्‍या करने लगा । नियमपूर्वक जप-तप करते हुए उसके एक हजार वर्ष व्‍यतीत हो गये। कहते हैं, उसके उस जप से प्रसन्‍न होकर देवी सावित्री ने उसे प्रत्‍यक्ष दर्शन दिया और कहा कि मैं तुझ पर प्रसन्‍न हॅू । ब्राह्राण अपने जपनीय वेद-संहिता के गायत्री मन्‍त्र की आवृति कर रहा था; इसलिये सावित्रीदेवी के आने पर चुपचाप बैठा ही रह गया। उनसे कुछ न बोला। देवी सावित्री की उस पर कृपा हो गयी थी; अत: वे उसके उस समय के व्‍यवहार से भी प्रसन्‍न ही हुई । वेदमाता ने ब्राह्राण के उस नियमानुकूल जपकी मन ही मन प्रशंसाकी। जप तप समाप्‍त हो गया, तब धर्मात्‍मा ब्राह्राण ने उठकर देवी सावित्री के चरणों में मस्‍तक रखकर साष्‍टांग प्रणाम किया और इस प्रकार कहा। ‘देवि ! आज मेरा अहोभाग्‍य है कि आपने प्रसन्‍न होकर मुझे दर्शन दिया । यदि वास्‍तव में आप मुझपर संतुष्‍ट हैं तो ऐसी कृपा कीजिये जिससे मेरा मन जप में लगा रहें’। सावित्री ने कहा – ब्रह्रार्षे ! तुम क्‍या चाहते हो ? कौन सी वस्‍तु तुम्‍हे अभीष्‍ट है ? बताओ । मैं तुम्‍हारा मनोरथ पूर्ण करूँगी । जप करनेवालों में श्रेष्‍ठ ब्राह्राण ! तुम अपनी अभिलाषा बताओ । तुम्‍हारी वह सारी इच्‍छा पूर्ण हो जायगी। सावित्रीदेवी के ऐसा कहनेपर वह धर्मात्‍मा ब्राह्राण बोला- ‘शुभे ! इस मन्‍त्र के जप में मेरी यह इच्‍छा बराबर बढती रहे और मेरे मन की एकाग्रता भी प्रतिदिन बढ़े। तब सावित्रीदेवी ने मधुर वाणी में ‘तथास्‍तु’ कहा । इसके बाद देवी ने ब्राह्राण का प्रिय करने की इच्‍छा से यह दूसरा वचन और कहा – ‘विप्रवर ! जहॉ दूसरे श्रेष्‍ठ ब्राह्राण गये हैं, उन स्‍वर्गादि निम्‍न श्रेणी के लोको में तुम नहीं जाओगे । तुमने स्‍वभावसिद्ध एवं निर्दोष ब्रह्रापद की प्राप्ति होगी । मैं उसे पूर्ण करने की चेष्‍टा करूँगी। तुम नियमपूर्वक एकाग्रचित होकर जप करो । धर्म स्‍वयं तुम्‍हारी सेवा में उपस्थित होगा । काल, मृत्‍यु और यम भी तुम्‍हारे निकट पधारेंगे, तुम्‍हारा उन सबके साथ यहॉ धर्मानुकूल वाद-विवाद भी होगी। भीष्‍मजी कहते हैं- राजन् ! ऐसा कहकर भगवती सावित्री देवी अपने धाम को चली गयी और ब्राह्राण भी दिव्‍य सौ वर्षोतक पूर्ववत् जप में संलग्‍न रहा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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