महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 201 श्लोक 22-27
एकाधिकद्विशततम (201) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
मनुष्य वाणी द्वारा जो कोई कर्म करता है, उसका सारा फल वह वाणी द्वारा ही भोगता है और मन से जो कुछ कर्म करता है, उसका फल यह जीवात्मा मन के साथ हुआ मन से ही भोगता है। फल की इच्छा रखनेवाला मनुष्य कर्म के फल में आसक्त हो जैसे-जैसे गुणवाला-सात्विक, राजस या तामस कर्म करता है, वैसे ही वैसे गुणों से प्रेरित होकर इसे उस कर्म का शुभाशुभ फल भोगना पड़ता है। जैसे मछली जल के बहाव के साथ बह जाती है, उसी प्रकार मनुष्य पहिले के किये हुए कर्म का अनुसरण करता है। उसे उस कर्म प्रवाह में बहना पड़ता है; परंतु उस दशा में वह श्रेष्ठ देहधारी जीव शुभ फल मिलनेपर तो संतुष्ट होता है और अशुभ फल प्राप्त होने पर दुखी हो जाता है (यह उसकी मूढता ही तो है)। जिससे इस सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति हुई है, जिसे जानकर मन को वश में रखनेवाले ज्ञानी पुरूष इस संसार को लॉधकर परमपद प्राप्त कर लेते है तथा वेद के मन्त्रवाक्यों द्वारा जिसका तात्त्विक स्वरूप पूर्णत: प्रकाश में नही आता, उस सर्वोत्कृष्ट वस्तु का मैं वर्णन करता हॅू, सुनो। वह अनिर्वचनीय वस्तु नाना प्रकार के रस और भॉति –भॉति के गन्धों से रहित है । शब्द, स्पर्श एवं रूप से भी शून्य है । मन, बुद्धि और वाणी द्वारा भी उसका ग्रहण नहीं हो सकता । वह अव्यक्त, अद्वितीय तथा रूप रंग से रहित है तथापि उसी ने प्रजाओं के लिये रूप, रस आदि पॉचों विषयों की सृष्टि की है। वह न तो स्त्री है, न पुरूष है और न नपुंसक ही है । न सत् है, न असत् है और न सदसत् उभयरूप ही है । ब्रह्राज्ञानी पुरूष ही उसका साक्षात्कार करते हैं । उसका कभी क्षय नही होता; इसलिये वह अविनाशी परब्रह्रा परमात्मा अक्षर कहलाता है, इस बात को अच्छी तरह समझ लो।
« पीछे | आगे » |