महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 205 श्लोक 1-17
पचाधिकद्विशततम (205) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
परब्रह्मा की प्राप्ति का उपाय
मनु जी कहते हैं – बृहस्पते !जब मनुष्य पर कोई ऐसा शारीरिक या मानसिक दु:ख आ पड़े, जिसके रहते हुए साधन करना अशक्य हो जाय, तब उसका दु:ख का चिन्तन करना छोड़ दे। दु:ख को दूर करने के लिये सबसे अच्छी दवा यही है कि उसका चिन्तन छोड़ दियाजाय; क्योंकि चिन्तन करने से वह सामने आता है और अधिकाधिक बढ़ता रहता है। अत: मानसिक दु:ख को बुद्धि एवं विचार द्वारा तथा शारीरिक कष्ट को औषधियों द्वारा दूर करे, यही विज्ञान की सामर्थ्य है, जिससे मनुष्य दु:ख में पड़ने पर बच्चों के समान बैठकर रोये नहीं। यौवन, रूप जीवन धन-संग्रह, आरोग्य और प्रियजनों का समागम– ये सब अनित्य हैं । विवेकशील पुरूषों को इनमें आसक्त नही होना चाहिये। जो दु:ख सारे देशपर है, उसके लिये किसी एक व्यक्ति को शोक नहीं करना चाहिये । यदि उसे टालने का कोई उपाय दिखायी दे तो शोक न करके उस दु:ख के निवारण का प्रयत्न करना चाहिये। इसमे संदेह नहीं कि जीवन में सुख की अपेक्षा दु:ख ही अधिक है ।जो पुरूष विषयों में अधिक आसक्त होता है, वह मोहवश मरणरूप अप्रिय कष्ट भोगता है। जो मनुष्य सुख और दु:ख दोनों को छोड़ देता है, वह अक्षय ब्रह्मा को प्राप्त होता है, अत: वे ज्ञानी पुरूष कभी शोक नहीं करते हैं। विषयों के उपार्जन मे दु:ख है । उनकी रक्षामें भी तुम्हें सुख नहीं मिल सकता । दु:ख से ही उनकी उपलब्धि होती है; अत: उनका नाश हो जाये तो चिन्ता नहीं करनी चाहिये। बृहस्पते ! तुम्हें ज्ञात होना चाहिये कि ज्ञेयरूप में परमात्मा से ज्ञान प्रकट होता है और मन ज्ञान का गुण (कार्य) है । जब वह ज्ञानेन्द्रियों से युक्त होता है, तब बुद्धि कर्मों में प्रवृत्त होती है। जिस समय बुद्धि कर्म-संस्कारों से रहित होकर हृदय में स्थित हो जाती है, उसी समय ध्यानयोगजनित समाधि के द्वारा ब्रह्मा का भली भॉति ज्ञान हो जाता है। अन्यथा जैसे जल की धारा पर्वतके शिखर से निकलकर ढाल की ओर बहती है, उसी प्रकार यह गुणवती बुद्धि अज्ञान के कारण परमात्मा से नियुक्त होकर रूप आदि गुणों की ओर बहने लग जाती है। परंतु जब साधक सबके आदिकारण निगुर्ण ध्येयतत्व को ध्यान द्वारा अन्त:करण में प्राप्त कर लेता है, तब कसौटी पर कसे हुए सुवर्ण के समान ब्रह्मा के यथार्थ स्वरूपका ज्ञान होता है। परंतु इन्द्रियों के विषयों को दिखानेवाला मन जब पहले से ही विषयों की ओर अपहृत हो जाता है, तब वह विषयरूप गुणों की अपेक्षा रखनेवाला मन निर्गुण तत्व का दर्शन कराने में समर्थ नहीं होता। समस्त इन्द्रियों को रोककर संकल्पमात्र से मन में स्थित हो उन सबको हृदय में एकत्र करके साधक उससे भी परे विद्यमान परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। जिस प्रकार गुणों का क्षय होनेपर पचमहाभूत निवृत्त हो जाते हैं, उसी प्रकार बुद्धि समस्त इन्द्रियों को लेकर हृदय में स्थित हो जाती है। जब निश्चयात्मिका बुद्धि अन्तर्मुखी होकर हृदय में स्थित होती है, तब मन विशुद्ध हो जाता है। शब्दादिगुणों से युक्त इन्द्रियों के संबंध से उन गुणों से घिरा हुआ मन जब ध्यानजनित गुणों से सम्पन्न होता है, तब उन समस्त गुणों को त्यागकर निर्गुण ब्रह्मा को प्राप्त हो जाता है।
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